पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१२५

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बलिहारी है, महाराज इस क्षणिक बुद्धि की। अभी तो फहते थे फि मन को किसी झगडे में फसने न देना चाहिए, और अभी कहने लगे कि मन की एकाग्रता के विना सहृदयना तथा सहृदयता के बिना जीवन की सार्थकता दु'साध्य है। धन्य हैं, यह सरगापचाली बातें । भला हम आपको अनुरागी समझे या विरागी?

पारेहम तो जो हैं वही है, तुम्हें जो समझना हो समझ रो। हमारी कुछ हानि नहीं है । पर यह सुन रस्त्रो, सीख रक्सो, समझ रसत्रो फि अनुराग और चिराग वास्तव में एक ही है। जब तक एक ओर अचल अनुराग न होगा तब तक जगत के खटराग में विराग नहीं हो सकता, और जब तक सब ओर से आंतरिक निरागन हो जाय तय तक अनुराग का निर्वाह सहज नहीं है। इसी से कहते हैं कि हमारी याते चुप चाप मान ही लिया करो, बहुत अगिल को दौडा २ के धकाया न करो। इसी में आनन्द भी श्राता है, और हदय का फपाट भी खुल जाता है । साधारण बुद्धिवाले लोग भगवान् भूतनाप श्मसान विहारी, मंडमालाधारी को वैराग्य का अधि- प्ठाता समझते है, पर यह आठों पहर अपनी प्यारी पर्वत राजनदिनी फो वामाग ही में धारण किए रहते हैं, और प्रेम- शास्त्र के आचार्य है। इसी प्रकार भगवान् कृष्णचन्द्र को लोग शृङ्गार रस का देवता समझते हैं, पर उनकी निर्लिप्तता गीना में देखनी चाहिए। जिसे सुनाफे उन्होंने अर्जुन का माइ- जाल टुडाके वर्तमान फर्तव्य के लिए ऐसा दृढ कर दिया था फिउन्होंने सरकी दवा-मया, मोह-ममता को तिलांजलि के