पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१४

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रूप,रङ्ग,आत्मश्र्लाघा, आदि ।

प्रतापनारायण का रग गोरा था। नाक बहुत बडी थी शरीर दुमला था। कमर जवानी ही में झुक गई थी। आधा सिर के बाल बड़े बड़े रखते थे और आगे दोनों तरफ काफुलें रखते थे। वे किश्चित् विलक्षण प्रकार की चेष्टा से कमर झुकाये हुए चलते थे । कदाचित् इनका दुर्चलर इसका कारण था। कभी कभी मेले में देखा गया कि पर्दे से ढके हुए इक में बैठे स्त्रियों की तरह झाकते हुए, आप चलें जा रहे हैं । हम दो दफे इनसे मिले । दोनों दफे हमने इनके लम्बी डाढी देसी । इनको नास सूघने का व्यसन था। इनकी नाक दिन भर नास फाका करती थी। इससे इनकी दाढ़ी   और मूछों के चालों पर भी थोडा बहुत नास छाया रहता था। शरीर इनका रोग का घर था । आप अपने रूप आदि की तारीफ में कहते हैं-

कौसिक कुल अन्तम श्री, मिश्र सङ्कटादीन । जिन निज-बुधि विद्या विभव, वश प्रशसित कीन ॥१ तासु तनय “परतापहरि," परम रसिक वुधराज । सुघररूप, सतक चिन विन, जिहि न रुचत कछु काज ॥२ प्रेम-परायन सुजन प्रिय, सहृदय नव रस सिद्ध । निजता निज भाषा विषय, अभिमानी परसिद्ध॥ ३ श्रीमुख जासु सगहना, कीन्हीं श्रीहरिचन्द । 'तासु कलम करतूति लसि, लहै न को श्रानन्द ॥ ४

सङ्गीत शाकुन्तल ।

नाटक की प्रस्तावना में कवि का अपने ही मुंह अपनी तारीफ करना अनुचित नहीं। पर, यहां, पण्डित प्रतापनारा.