न जाने क्या दुर्दशा भाई है कि लोगों को सब विलायती पदार्थ प्री अच्छे लगते हैं। कदाचित् इसका कारण पश्चिमीय शिक्षा हो। लोग बाल्यावस्था में ही उन स्कूलों में भेज दिने जाते हैं जहा वही अगरेजी गिटपिट से काम पडे। चाहे कश्मीरी, खत्री आदि को भी सतति हो, पर अपने को ब्लैक कहने में आदर सममें। चाहे महाराष्ट्र वीरों के पुत्र भी हो, पर घही कि हम में अगरेजों की सी फुर्ती कहां से आई, इत्यादि । यह सब बाते लिसें तो लेख बहुत बढ़ जायगा। हमें तो केवल यह दिखाना हे कि काल के परिवर्तन से जो लोग विलायत गमन के लिए कहो वेद से लेकर पुराण, कुरान बादि के श्लोक घा आपत छांट छांट के छपा दें, कहो सहस्त्र युक्तिया निकालके यह सिद्ध कर दें कि वहां की सी जल वायु कहीं नहीं है. वहा की रहन सहन, बोल चाल, 'शिष्टता मिष्टता कहीं नहीं । वहा हमारे पूर्वज तो सब जाते थे। बिना वहा के साधाच्छादन किये हमारी ब्लैकनेम (श्यामता) जा सकती है, न गौरा देवों को भी पूजा, मिख सकती है। अरे भाई एक ब्राह्मण चाहे सो यके, पर तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।
पर यदि हमी श्वेत लेप लागा लें, और अपना नाम भी रेवरेन्ड मिस्टर P Naroregem Messnr ए० पी० सी०डी० जेड रप लें तो तुरत आप हमारेबगले पर माके हममे साक्षात् करके कर-स्पर्श करने को उत्सुफ होंगे। आप अपनी पाकेट से रूमाल निकालके झुकेंगे कि हमारा वूट पोंछ दें। पर हम कहेंगे "मो हट जामो सूपर कालागा झट से श्राप -