हमारी समझ में इन बातों की ज़रूरत न थी । इनके लेख ही इनकी प्रसिद्धि के लिए काफी थे। खुश्ही अपने को "प्रसिद्ध" लिखने से इनकी प्रसिद्धि शायद ही अधिक हुई हो।
आप कविता में अपना नाम प्रताप, प्रतापहरि, और कभी
कभी प्रेमदास देते थे। प्रेम के आप बहुत घडे पूजक थे।
इसीसे आपने अपने नामों में एक नाम प्रेमदास भीरक्खा था।
प्रतापनारायण के स्वभाव में स्वच्छन्दता अधिक थी। ये हमेशा अपने ही रग में मम्त रहते थे। किसी की परवा इनको न थी। जिन लोगों के साथ ये वैठते उठते थे, अथवा जिनसे इनका मैत्रीभाव था उनके यहा कभी कभी ये दिन दिन भर पडे रहते थे। पर कभी कभी हजार मिन्नत आरजू करने पर भी उनके यहां ये न जाते थे।ये सर्वधामनमौजी थे । जब कभी कोई इनकी तबियत के खिलाफ कुछ कह देता या कोई काम कर बैठता तब उसका जरा भी मुलाहजा न करके ये उसकी गोशमाली करने लगते थे। इनकी तबियत में जोशथा । इससे कमी कभी छोटी छोटी बातों पर भी ये विगड उठते थे। खदेशी चीजों और कपड़ो पर इनका अधिक प्रेम था। सादा- पन इन्हें बहुत पसन्द था ये हमेशा सादे कपडे पहनते थे। एक दफा कोट बूट पहने एक महाशय इनसे मिलने आये। उस समय ये बहुत सादी पोशाक में अपनी मिनमण्डली के बीच बैठे थे। आगन्तुक ने कहा-"हम पण्डित प्रतापनारा- यण से मिलना चाहते हे" । यह सुन कर प्रतापनारायण अपनी देहाती बोली में बोल उठे-"भाई उनसे मिले की खातिर पन्द्रह रुपैया का एफु टिकट लेइ का परत है तय उह