पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१७६

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पड़ें पत्थर समझ पर आपकी समझे
तो क्या समझे।

अपयर में जो हमने "फतेहगढ पंच को शिक्षा दी थी, हमने समझा था कि कुछ मांसैं खुल जायंगी। नागरी देवी और उग्दू बीघी का भेद कुछ तो समझ जायंगे, पर तब से दो मास तक आप मुंह छिपाने पीछे आज पहिली जनवरी को "उपदेशोहि मूर्याणा प्रकोपाय न शांतये का उदाहरण वन के आये हैं, तो कहते क्या हैं कि "कोई उरदू को क्या समझेगा जैसा हम समझते हैं। क्यों नहीं माहय, तभी तो रसोईपज का शब्द गढा है। हजरत रसोई हिन्दी का शब्द है, उसके साथ पकाने वाला कहते तो युक्त था, नहीं तो 'तुनामपज' कहना योग्य है। रसोईपज' यह दोगली भाषा है। इसी से तो आपकी उरदू में खलल मालूम होता है। और हमने आपकी ख़ातिर से मान लिया कि भाप उरदू जानते हैं फिर इससे क्या, उरद स्वय कोई भापा नहीं । अन्य भाषाओं का, विशेषत हमारी हिन्दी का, करकट है। विचारे उसके जाननेवाले हम नागरी रसिकों का सामना क्या खाके करेंगे। हां, जीभ हिलाना यह और बात है। यद्यपि विजातीय मससरों के मुह लगना अखिलार्य नरेन्द्र-पूजित पादपीठ महात्मा 'ब्राह्मण' को शोभा नहीं देता, पर व्यर्थवादियों का दर्पदलन न करें तो भी सो अच्छा नहीं । अत. जब तक योग्य समझेंगे, लेपनी चलाये जायगे।

पंचजी! हिन्दी का गौरव समझना और उसके भकों से। शाखार्थ करना आपही की सी बुद्धिवातों का काम नहीं है।