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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/६६

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डालते हैं ! हम प्रजागण कुछ उपाय ही नहीं करते, इसका क्या हेतु है ? इन सव यातो का यही कारण है कि इन सब नामों के आदि में यह दुरूह 'दकार है!

हमारे श्रेष्ठ सहयोगी हिन्दी प्रदीप सिद्ध कर चुके है फि 'लकार' बडी ललित' और रसीली होती है। हमारी समझ में उसी का साथ पाने से दीनदयाल, दिलासा, दिलदार, दालमात इत्यादि दस पांच शब्द कुछ पसंदीदा हो गये हैं, नहीं तो देवताओं में दुर्गाजी, ऋषियों में दुर्गासा, राजाओं में दुर्योधन महान् होने पर भी कैसे भयानक है। यह दहा ही का प्रभाव है। कनवजियों के हक में दमाद और दहेज, खरीदारों के हक में दुकानदार और दलाल, के हक में दाम (जाल) और दाना आदि कैसे दुखदायी है ! दमडी कैमी तुच्छ सशा है, दाद कैसा बुरा रोग है, दखि कैसी कुदशा है, दारू कैसी कडवाहट, वदवू, बदनामी और बदफैली की जननी है, दोगखा कैसी खराय गाली है, दगा वस्नेडा केसी बुरी आदत है, दश (मच्छड या डास ) कैसे हैरान करनेवाले जतु हैं, दमामा केसा कान फाडनेवाला बाजा है, देशी लोग कैसे घृणित हो रहे है, दलीपसिंह फैसे दीवानापन में फस रहे हैं। कहा तक गिना, दुनियाभरे की दन्त कटा फट 'दकार' में भरी है, इससे हम अपने प्रिय पाठकों का दिमाग चाटना नहीं पसन्द करते, और इस दुस्सह अक्षर दास्तान फो चिडियों की दूर करते हैं।

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