पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/६९

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ऐसे काटे की पी है कि नीचे से पकडके फिसी घस्तु में डाल दें तो जाते समय कुछ न जान पडेगा, पर निक- लते समय उस वस्तु का दोनों हाथों अपनी घोर खींच लावेगा। प्रत्यक्ष देस लो कि यह जिसका स्वत्व हरण किया चाहते हैं उसे पहले कुछ भी नहीं ज्ञान होता, पीछे से जो ६ सो इन्हीं का! और हमारे वर्णमाला का "ट" एक ऐसे आंकडे के समान है, जिसे ऊपरसे* पकड सकते हैं, और हर पदार्थ में प्रविष्ट कर सकते हैं, पर उस वस्तु को यटि सावधानी से अपनी भोर पींचे तो तो फुशल है नहीं तो फोरी मिहनत होती है। इसी से हम जिन यातों को अपनी ओर खींचना प्रारम्भ करते हैं उनमें 'टकार के नीचेवाली नोक की भाति पहिले तो हमारी गति सूब होती है, पर पीछे से जहां दृढता में चूके वहीं संठ के सठ रह जाते हैं।

दूसरा अन्तर यह है कि अगरेजो के यहा "टी सार्थक है और हमारे यहां एक रूप से निरर्थक । अगरेजी में "टी के माने चाह के है, जो उनके पीने की चीज है, अर्थात् घे अपना पेट भरना पय जानते हैं। पर हमारे यहा "ट" का कुछ अर्थ नहीं है। यदि टट्टा कहो तो भी एक हानिकारक ही अर्थ निकलता है, घर में टट्टा लगा हो तो न हम बाहर जा सकते हैं, अर्थात् अन्य देश में जाते ही धर्म और विरादरी में बदनाम होते हैं, और याहर की विद्या, गुण मादि हमारे हृदय-मदिर के भीतर नहीं पा सकते । यार्दै भी तो हमारे भाई चोर२ कहके चिल्लाय यह अनर्थ ही तो है।


  • नीचे से परड़ना अर्थात् उसके मुल को दुइ के काम में खाना

और ऊपर से पकड़ना अर्याद दैवाधीन समझ कर कर बठाना।