इस पत्र के पहले तीन साल के सब अटू देख डाले. पर इति हास, जीवन चरित्र, विज्ञान, पुगनत्व अथवा ओर पिसी मनो- रजक या लाभदायक शास्त्रीय विषय पर कोई अच्छे लेख हमें न मिले । इसमें पण्डित प्रतापनारायण का दोप कम था, समय का अधिका।
प्रतापनारायण की हिन्दी सूय मुहावरेदार होती थी । वे अपने लेखों में कहावतें बहुन लियते थे। पर शब्द-शुद्धि की तरफ उनका पयात कम था । म्लेक्ष, रिपि, रिपीश्वर, रितु, ग्रहम्त, लेखणी, औगुण, मात्रभापा आदि व्याकरण विरुद्ध शब्द जगह जगह पर देस पडते हैं। सम्भव है ऐसे शब्द सावधानी से प्रूफ न देखने के कारण रह गये हों। या हिन्दी समझ कर प्रतापनारायण ने इन्हें ऐसाही लिखा हो । 'ब्रह्मण' में हमें कितने ही सस्कृत के वाक्य भी व्याकरण विरुद्ध मिले यथा "अह पण्डितम्।। "खधी निधन श्रेय" | "का चिन्ता मरणो रणो" । "यथानामस्तथागुण"। इनको देखकर परिज तापनारायण की सस्कृतज्ञता के विषय में शक्षा होने लगती है। पर सस्कृत में भी उन्होंने कविता लिखी है। उनकी एक पुस्तक का नाम है "मन की लहर। उसमें एक लावनी सस्कृत में हेमवह यद्यपि निदोष नहीं है तथापि वुरी भी नहीं है । इसी पुस्तक में पण्डित प्रतापनारायण को फुछ फारसी कविता भी है । पर फारसी के अच्छे जाननेवाले ही उसपर अपनी राय दे सकते हैं । १५ मई १८८३ ईसवी के "ब्राह्मण" में एक तेन वेगार पर है। वह अगरेज़ी में है। पता लगाने से मालूम हुआ कि वह मिशन कृन के अध्यापक पावू नन्हेमन्त का लिखा हुआ है । प्रतापनारायण ने अपना उपनाम "ईश्वरावलम्रित" रफ्ता था और उनके साथी