पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/८७

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करके लिखते हैं। इस ढङ्ग के पत्रों में एक यह है, जिसके प्रेषक महाशय को हम जानते भी नहीं है।

"श्रीयुत कविकुल-मुकुटमणि, पडितवर, हिन्दी भाषा भूषण, प्रतिभारतेन्दु रसिकराज, श्री प्रतापनारायण मिश्र समीपेषु निवेदन मिदम्—

हे भाषाचार्य!

"आपसे हिन्दी भाषा-बृहस्पति की स्तुति मुझ सा मदमति क्या कर सकेगा? नहीं! नहीं! नही! फिर बस! उस परम हृदयगम विषय की इतिथी यहीं सही!

"आपकी चमत्कृत कृति प्रापकी केवल एक ही पुस्तक "प्रेमपुष्पावली" में देख पड़ी; पर उसके पढ़ने से मेरी प्रेमसृष्णा शतगुणित बढ़ी, अर्थात् आपके अनेक रसमय लेख देखने की अत्युत्कट इच्छा प्रगट हुई है; सो तृप्त करना आप ही से महाशयों का काम है।

"अब मेरी आपसे इतनी ही विनती है कि आपके समग्र लेख, जो "ब्राह्मण," पुस्तक, अथवा अन्यत्र प्रकाशित हुए हों सो सब इस पत्र के देखते ही 'वेल्यूपैबिल पोस्ट' द्वारा इस पते पर भेजिए, और अपना अद्वितीय पत्र "ब्राह्मण" भी सदैव भेजा कीजिए।"

कोल्हापुर

आपका दासानुदास,
रायसिंह देव वर्म्मा।

२६-३-८८

पता—रावसाहब रायसिंह राव स्टेट सरबेयर

कोल्हापुर, (Deckan)

इन्हीं राव साहब का दूसरा पत्र नीचे उद्धृत है। परमेश्वर ऐसे सज्जनों का भला करे। हम खुशामदी नहीं हैं कि