पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/८९

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जान एसीऔर उसी के साप नागरी देवी की प्रभा खुल पडी । द्वितीय संख्या अधूरी छोड तृतीया को हाथ में लिया। मयम पत्रके उलटते ही नागरी की "मी" पर एिपडी, फिर क्या पूछना ? नागरी गुण-भागरी की मन मोहफता खयर - पडी पस! अप तो मेमन्यधन में यध गए। अब न इससे दुटकारा है, न कुछ धारा है !

"मेरी मेच्छा इस प्रेमाधिकारी "बामणा के गरते पडी। मैं इझा पछा हो मुह ताकते ही रह गया । जय होश में आया तब रस (प्रेमेच्छा) से फहा हे निलजे कुछ तो धीरज घरती, थोड़ा तो विचार फरती, भरी गवारी कहा तो यह प्राक्षणोचम, और कहा तू 'क्षत्रात्मजा, लघुतमा' 'कहां राजा मोज कहां भोजवा तेली' | उसने (अर्थात् प्रेमेच्छा ने) उत्तर दिया कि "क्यो कलिकाल के फेरे में पडकर प्रेमरस में विष मिलाते हो ? ब्रह्म, क्षत्र का मूल तो एक है न । आज तक कितनी इत्र-कन्याए प्रमादागिनिया होती आई है। तिस पर इस मेम पथ में जात पान का पखेडा क्या ?

"इसके सुनते ही मैं निरुत्तर तो हुवा सही, पर इसावले पतले 'प्राह्मण' का डील-डौल देखके और उसके दुःखोद्गार सुनके सर्थक होके मैंने कहा,-"अरी लडकी ! इस परदेशी विजवर का कुम्हलाया हुया कमल-बदन भी देनती है कि उसके प्रेम ही पर लटू हो अपना सर्वस्व खोती है। यह वो अय तय का हो रहा है, क्यों नाहक सौभाग्य के साथ ही वैधव्य को घुलाती है ? तेरे लिलार ही में पति का सुख नहीं लिखा सो तुझको कैसे प्राप्त होगा? इससे तो सदा कुमारी हो रहना येहतर है।" पालिका बोल उठी-"क्यों ऐसे कुतर्क करते हो ? सावित्री के पति प्रेम पुनीत्व हो ने उसके प्राण