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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१००

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सातवां परिच्छेद
 

सन्देह का कारण है? तो फिर मैं पढ़ना छोड़ दूंगी, भूल कर भी मन्साराम से न बोलूंगी-उसकी सूरत न देखूँगी।

लेकिन यह तपस्या उसे असाध्य जान पड़ती थी। मन्साराम से हँसने-बोलने में उसकी विलासिनी-कल्पना उत्तेजित भी होती थी, और तृप्त भी। उससे बातें करते हुए उसे एक अपार सुख का अनुभव होता था, जिसे वह शब्दों में प्रकट न कर सकती थी। कुवासना की उसके मन में छाया भी न थी। वह स्वप्न में भी मन्सारामसे कलुषित प्रेम करने को बात न सोच सकती थी। प्रत्येक प्राणो को अपने हमजोलियों के साथ हँसने-बोलने को जो एक नैसर्गिक तृष्णा होती है, उसी की तृप्ति का यह एक अज्ञात साधन था। अब यह अतृप्त तृष्णा निर्मला के हृदय में दीपक की भाँति जलने लगी। रह-रह कर उसका मन किसी अज्ञात वेदना से विकल हो जाता। खोई हुई किसी अज्ञात वस्तु की खोज में इधर-उधर ढूंढ़ती फिरती, जहाँ बैठती वहाँ बैठी ही रह जाती; किसी काम में जी न लगता। हाँ, जव मुन्शी आ जाते तो वह अपनी सारी तृष्णाओं को नैराश्य में डुवा कर उनसे मुस्करा कर इधर-उधर की वातें करने लगती।

कल जब मुन्शी जी भोजन करके कचहरी चले गए, तो रुक्मिणी ने निर्मला को खूब तानों से छेदा-जानती तो थी कि यहाँ बच्चों का पालन-पोषण करना पड़ेगा, तो क्यों घर वालों से नहीं कह दिया कि वहाँ मेरा विवाह न करो? वहाँ जाती जहाँ पुरुष के सिवा और कोई न होता। वही यह बनाव-चुनाव और