भी नहीं देते। वेचारा अकेले भूखा पड़ा है! उस वक्त भी मुँह जूठा करके उठ गया था;और उसका आहार ही क्या है-जितना वह खाता है,उतना तो साल दो साल के बच्चे खा जाते हैं!
निर्मला चली! पति की इच्छा के विरुद्ध चली!! जो नाते में उसका पुत्र हाता था,उसी को मनाने जाते उसका हृदय काँप रहा था!
उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की ओर देखा। वह भोजन • करके बेखवर सो रही थीं। फिर बाहर के कमरे की ओर गई।
वहाँ भी सन्नाटा था। मुन्शी जी अभी न आए थे। यह सब देखमाल कर वह मन्साराम के कमरे के सामने जा पहुँची। कमरा खुला हुआ था,मन्साराम एक पुस्तक सामने रक्खे मेज़ पर सिर मुकाए बैठा हुआ था,मानो शोक और चिन्ता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा; पर उसके कण्ठ से आवाज न निकली।
सहसा मन्साराम ने सिर उठा कर द्वार की ओर देखा। निर्मला को देख कर वह अँधेरे में पहचान न सका| चौंक कर वोला-कौन?
निर्मला ने काँपते हुए स्वर में कहा-मैं तो हूँ। भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो? कितनी रात गई?
मन्साराम ने मुँह फेर कर कहा-मुझे भूक नहीं है।
निर्मला-यह तो मैं तीन बार मुङ्गी से सुन चुकी हूँ।
मन्साराम तो चौथी बार मेरे मुँह से सुन लीजिए।