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ग्यारहवाँ परिच्छेद
 


कर उसे जैसे दूना ज्वर हो जाता था। कहने लगा -- मैं यहाँ मर जाऊँगा; लेकिन घर न जाऊॅगा। आखिर मजबूर होकर अस्पताल पहुँचा आया; और क्या करता?

रुक्मिणी भी आकर बरामदे में खड़ी हो गंई थीं;बोलीं -- वह जनम का हठी है,यहाँ किसी तरह न आवेगा और यह भी देख लेना, वहाँ अच्छा भी न होगा!

मुन्शी जी ने कातर स्वर में कहा -- तुम दो-चार दिन के लिये वहाॅ चली जाओ,तो बड़ा अच्छा हो; बहिन! तुम्हारे रहने से उसे तस्कीन होती रहेगी। मेरी वहिन,मेरी यह विनय मान लो। अकेले वह रो-रोकर प्राण दे देगा। बस,हाय अम्माँ! हाय अम्माँ! की रट लगा-लगा कर रोया करता है। मैं वहीं जा रहा हूँ, मेरे साथ ही चली चलो! उसकी दशा अच्छी नहीं! बहिन,वह सूरत ही नहीं रही! देखें ईश्वर क्या करते हैं?

यह कहते-कहते मुन्शी जी की आँखों से आँसू बहने लगे; लेकिन रुक्मिणी अविचलित भाव से बोलीं -- मैं जाने को तैयार हूँ। मेरे वहॉ रहने से अगर मेरे लाल के प्राण बच जायँ, तो मैं सिर के बल दौड़ी जाऊँ; लेकिन मेरा कहना गिरह बाॅध लो भैया! वहाँ वह अच्छा न होगा। मैं उसे खूब पहचानती हूँ। उसे कोई बीमारी नहीं है, केवल घर से निकाले जाने का शोक है। यही दुख ज्वर के रूप में प्रकट हुआ है। तुम एक नहीं, लाख दवा करो -- सिविल-सर्जन को ही क्यों न दिखाओ,उसे कोई दवा असर न करेगी!