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बारहवाँ परिच्छेद
 

रुक्मिणी-मैं कहती हूँ मत जाओ!

निर्मला ने विनीत भाव से कहा-अभी चली आऊँगी,दीदी जी! जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है! जी नहीं मानता,आप भी चलिए न!

रूक्मिनी-मैं देखआई हूँ। इतना ही समझ लो कि अब बाहरी खून पहुँचने ही पर जीवन की आशा है। कौन अपना ताज़ा खून देगा; और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है।

निर्मला-इसीलिए तो मैं जाती हूँ। मेरे खून से क्या काम न चलेगा?

रुक्मिणी-चलेगा क्यों नहीं,जवान ही का खून तो चाहिए;लेकिन तुम्हारे खून से मन्सा की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाय!

ताँगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे! ताँगा चला!

रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देर तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई। उसका बस होता तो वह निर्मला को बाँध रखती। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहाँ लिए जाता है,यह वह अप्रकट रूप से देख रही थी। आह! यह दुर्भाग्य-प्रेरणा है,यह सर्वनाश का मार्ग है!

निर्मला अस्पताल पहुंची,तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग अपनी-अपनी राय देकर बिदा हो चुके थे। मन्साराम का ज्वर कुछ कम हो गया था। वह टकटकी लगाए द्वार की ओर देख