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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१६०

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बारहवाँ परिच्छेद
 

निर्मला ने निःशङ्क भाव से उत्तर दिया-आप यहाँ क्या: करने आए हैं?

मुन्शी जी के नथने फड़कने लगे। वह झल्ला कर चारपाई से उठ और निर्मला का हाथ पकड़ कर वोले-तुम्हारे यहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं। जब मैं बुलाऊँ तव आना,समझ गई।

अरे! यह क्या अनर्थ हुआ? मन्साराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था,उठ कर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिर कर रोते हुए बोला-अम्मां जी,इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ? मैं आपका स्नेह कभी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो,जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो सकूँ। ईश्वर जानता है,मैंने आपको विमाता नहीं समझांं। मैं आपको अपनी माता समझता रहा। आपकी उन्न मुझसे बहुत ज्यादा न हो;लेकिन आप मेरी माता के स्थान पर थीं;और मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि देखा......अव नहीं वोला जाता;अम्माँ जी,क्षमा कीजिए! यह अन्तिम भेट है!!

निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा-तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे!

मन्साराम ने क्षीण स्वर में कहा-अब जीने की इच्छा नहीं;और न वोलने की शक्ति ही है!

यह कहते-कहते मन्साराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट