पृष्ठ:निर्मला.djvu/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
 

तेरहवां परिच्छेद

जो कुछ होना था हो गया, किसी की कुछ न चली डॉक्टर साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मन्साराम अपने उज्ज्वल चरित्र की अन्तिम झलक दिखा कर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया! कदाचित् इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला ही की राह देख रहे थे। उसे निष्कलङ्क सिद्ध किए बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया! मुन्शी जी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया; पर कब? जब हाथ से तीर निकल चुका था—जब गुसाफ़िर ने रिकाब में पाँव डाल लिये थे!

पुत्र-शोक से मुन्शी जी को जीवन भार-स्वरूप हो गया! उस दिन से फिर उनके ओंठों पर हँसी न आई! यह जीवन अब उन्हें व्यर्थ सा जान पड़ता था! कचहरी जाते; मगर मुक़दमों की पैरवी करने नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए! घण्टे-दो घण्टे में वहाँ से उकता कर चले आते। खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता!