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निर्मला
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बहाने दे दूँ। ईश्वर फिर इस मनहूस की सूरत न दिखाए। रँगीली ने बहुत अछताते-पछताते दस रुपये निकाले, और बाबू साहब ने उन्हें ले जाकर पण्डित जी के चरणों पर रख दिया। पण्डित जी ने दिल में कहा—धत्तेरे मक्खी चूस की! ऐसा रगड़ा कि याद ही करोगे। तुम समझते होगे कि दस रुपये देकर इसे उल्लू बना लूँगा। इस फेर में न रहना। यहाँ तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। रुपये जेब में रख लिए, और आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।

बाबू साहब बड़ी देर तक खड़े सोच रहे थे—मालूम नहीं अब भी मुझे कृपण ही समझ रहा है, या परदा ढक गया। कहीं ये रुपये भी तो पानी में नहीं गिर पड़े!!