पृष्ठ:निर्मला.djvu/६८

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पांँचवांँ परिच्छेद
 

सब कुछ भूल कर फिर माता के पास दौड़ा जाता था। शरारत के लिये सजा पाना तो उसकी समझ में आता था, लेकिन मार खाने पर चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था। मातृ-प्रेम में कठोरता होती थी, लेकिन मृदुलता से मिली हुई। इस प्रेम में करुणा थी; पर वह कठोरता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त सन्देश है। स्वस्थ अङ्ग की परवाह कौन करता है? लेकिन वही अङ्ग जव किसी वेदना से टपकने लगता है, तो उसे ठेस और धक्के से बचाने का यत्न किया जाता है। निर्मला का करण रोदन बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था। वह बड़ी देर तक निर्मला की गोद में बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया। निर्मला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल वाहें उसकी गर्दन में डाल दी; और ऐसा चिपट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा है। शङ्का और भय से उसका मुख विकृत हो गया। निर्मला ने फिर बालक को गोद में उठा लिया, चारपाई पर न सुला सकी। इस समय बालक को गोद में लिए हुए उसे वह तुष्टि हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी। आज पहली बार उसे वह आत्म-वेदना हुई, जिसके बिना आँखें नहीं खुलती, अपना कर्तव्य-मार्ग नहीं सूझता। वह मार्ग अव दिखाई देने लगा।