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निर्मला
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रुक्मि-तुम्हारी नई अम्माँ जी की कृपा होगी;और क्या?

मन्सा-नहीं बुआ जी,मुझे उन पर सन्देह नहीं है,वह बेचारी तो भूल से भी कभी कुछ नहीं कहतीं। कोई चीज़ माँगने जाता हूँ, तो तुरन्त उठ कर देती हैं।

रुक्मि-तू यह त्रियाचरित्र क्या जाने,यह उन्हीं की लगाई आग है। देख मैं जाकर पूछता हूँ न।

रुक्मिणी झल्लाई हुई निर्मला के पास जा पहुँची। उसे आड़े हाथों लेने का,काँटों में घसीटने का,तानों से छेदने का,रुलाने का कोई सुअवसर वह हाथ से न जाने देती थीं। निर्मला उनका,आदर करती थी,उनसे दबती थी,उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी कि यह मुझे सिखावन की बातें कहीं जहाँ मैं भूलूँ वहाँ सुधारें,सब कामों की देख-रेख करती रहें;पर रुक्मिणी उससे तनी ही रहती थीं।

निर्मला चारपाई से उठ कर बोली-आइए दीदी,बैठिए!

रुक्मिणी ने खड़े-खड़े कहा-मैं पूछती हूँ,क्या तुम सब को घर से निकाल कर अकेली.ही रहना चाहती हो?

निर्मला ने कातर भाव से कहा-क्या हुआ;दीदी जी? मैं ने तो किसी से कुछ नहीं कहा।

रुक्मि०-मन्साराम को घर से निकाले देती हो,तिस पर कहती हो मैंने तो किसी को कुछ नहीं कहा। क्या तुमसे इतना। भी नहीं देखा जाता?

निर्मला-दीदी जी,मैं तुम्हारे चरणों को छूकर कहती हूँ,