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निर्मला
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थीं; लेकिन अब मुन्शी जी का शङ्कित हृदय कुछ शान्त हो गया था। उस दिन से उन्होंने मन्साराम को कभी घर में जाते नहीं देखा । यहाँ तक कि अब वह खेलने भी न जाता था। स्कूल जाने के पहले और आने के बाद बरावर अपने कमरे में बैठा रहता। गर्मी के दिन थे, खुले हुए मैदान में भी देह से पसीने की धारें निकलती थीं, लेकिन मन्साराम अपने कमरे से बाहर न निकलता। उसका आत्माभिमान आवारापन के आक्षेप से मुक्त हो जाने के लिए विकल हो रहा था। वह अपने आचरण से इस कलङ्क को मिटा देना चाहता था।

एक दिन मुन्शी जो बैठे भोजन कर रहे थे कि मन्साराम भी नहा कर खाने आया। मुन्शी जी ने इधर उसे महीनों से नङ्गे बदन न देखा था। आज उस पर निगाह पड़ी तो होश उड़ गए । हड्डियों का एक ढाँचा सामने खड़ा था। मुख पर अब भी ब्रह्मचर्य का तेज था; पर देह घुल कर काँटा हो गई थी। पूछा-आजकल तुम्हारी तबीयत अच्छी नहीं है क्या? इतने दुर्बल क्यों हो?

मन्साराम ने धोती ओढ़ कर कहा--तबीयत तो बिलकुल अच्छी है।

मुन्शी जी-फिर इतने दुर्बल क्यों हो?

मन्सा०-दुर्बल तो नहीं हूँ। मैं इससे ज्यादा मोटा कब था?

मुन्शी जी-वाह आधी देह भी नहीं रही और कहते हो मैं दुर्बल नहीं हूँ। क्यों दीदी, यह ऐसा ही था?

रुक्मिणी आँगन में खड़ी तुलसी को जल चढ़ा रही थीं।