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नैषध-चरित-चर्चा

यम विरुद्ध हो जायगा, तो तुम्हारे अथवा वर के पक्ष का कोई- न-कोई मनुष्य वह मार डालेगा। अतएव सूतक हो जाने से नल के साथ तुम्हारा विवाह न हो सकेगा। इंद्र यदि कल्पवृक्ष से तुमको माँग लेगा, तो उसके पास तुम्हें अवश्य ही जाना पड़ेगा । अतएव—

इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया
विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय ;
सुरेषु विघ्नैकपरेषु को नरः
करस्थमप्यर्थमवाप्तुमीश्वरः ।

(सर्ग ९, श्लोक ८३)
 

अर्थात्—हे दमयंति ! मैंने जो कुछ तुमसे कहा, तुम्हारे ही हित के लिये कहा । मूर्खता को छोड़कर कुछ तो मन में विचार कर । यदि देवता ही विघ्न करने पर उद्यत हो जायँगे, तो किसका सामर्थ्य है कि हथेली पर रक्खी हुई वस्तु को भी वह हाथ लगा सके ?

ये सब बातें दमयंती के चित्त में जम गईं । उसने यथार्थ ही समझ लिया कि अब मैं किसी प्रकार नल को नहीं प्राप्त कर सकती। इस तरह हताश हो जाने के कारण वह अत्यंत विह्वल होकर विलाप करने लगी। दमयंती को यह विलाप इतना कारुणिक है कि जिसमें कुछ भी सहृदयता है, वह उसे पढ़कर साश्रु हुए विना कदापि नहीं रह सकता ।

आँसू गिराते हुए दमयंती कहती है—