श्रव्य काव्य तीन प्रकार का है—गद्य-पद्यात्मक, गद्यात्मक और पद्यात्मक।
गद्य-पद्यात्मक काव्य को साहित्यज्ञ चंपू कहते हैं—जैसे रामायण-चंपू, भारत-चंपू इत्यादि । हिंदी में इस प्रकार का कोई अच्छा ग्रंथ नहीं ; हाँ, लल्लूलाल के प्रेमसागर को हम यथा-कथंचित् इस कक्षा में सन्निविष्ट कर सकते हैं।
गद्यात्मक काव्य के दो विभाग हैं—आख्यायिका और कथा । उदाहरणार्थ—कथासरित्सागर, कादंबरी, वासवदत्ता इत्यादि । हिंदी के उपन्यास इसी विभाग के भीतर आ जाते हैं।
पद्यात्मक काव्य त्रिविध हैं—कोषकाव्य, खंडकाव्य महाकाव्य।
कोषकाव्य उसे कहते हैं, जिसके पद्य एक दूसरे से कुछ भी संबंध नहीं रखते—जैसे आर्या-सप्तशती, अमरुशतक, भामिनीविलास इत्यादि ।
खंडकाव्य महाकाव्य की अपेक्षा छोटा होता है, और प्राय: सर्ग-बद्ध नहीं होता । यदि सर्गबद्ध होता भी है, तो उसमें आठ से अधिक सर्ग नहीं होते । इसके अतिरिक्त और विषयों में भी उसमें महाकाव्य के लक्षण नहीं होते। मेघदूत, ऋतुसंहार, समयमातृका इत्यादि खंडकाव्य के उदाहरण हैं।
नैषध-चरित की गणना महाकाव्यों में है। दंडी कवि ने, अपने काव्यादर्श ग्रंथ में, महाकाव्य का जो लक्षण लिखा है, वह हम यहाँ पर उद्धत करते हैं—