नल को धर्म-भीरुता का यह बड़ा हो जाज्वल्यमान प्रमाण है।
जिस समय नल के मन में नाना प्रकार की विषम कल्पनाएँ उत्पन्न हो रही और उसे विकल कर रही थीं, उसी समय उस हिरण्मय हंस ने अकस्मात् आकर आश्वासन-पूर्वक यह कहा कि इतना व्यथित होने की कोई बात नहीं। देवता तुम्हारी शुद्धता को अच्छी तरह जान गए हैं। इतना कहकर हंस वहाँ से उड़ गया । हस के जाने पर नल ने दमयंती से बहुत कुछ कहा, परंतु जो दमयंती पहले इतनी प्रगल्भता कर चुकी थी, उसके मुख से, नल की पहचान होने के अनंतर, एक शब्द तक भी न निकला। श्रीहर्षजी कहते हैं—
विदर्भराजप्रभवा ततः परं
त्रपासखी वक्तुमलं न सा नलम् ।
पुरस्तमूचेऽभिमुखं यदत्रपा
ममज्ज तेनैव महाहदे हियः।
भावार्थ—इतना होने पर दमयंती लज्जा से इतनी अभिभूत हो गई कि नल को एक भी बात का वह उत्तर न दे सकी। पहले उसने नल के अभिमुख विशेष प्रौढ़ता के साथ बातचीत की थी। इसीलिये उसे अब इस समय लज्जा के समुद्र में निमग्न होना पड़ा।
इसी के आगे यह श्लोक है—