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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

(किंतु) देवः । भवस्या न निर्णीयते किमु ? न व्रियते (किमु) ? अयं तव नलः न खलु, (किंतु) अति महान- लाभः । यदि एनम् उञ्झासि, पुनः ते वरः कतरः ?

भावार्थ—हे विदुषि ! यह पृथ्वी का पति नहीं है; यह देवता है। क्या तू इसको वरणमाल्य पहनाने की इच्छा नहीं रखती ? सच कहती हूँ, यह तेरा नल नहीं है, किंतु नल को आभा मात्र है। यदि तू इसे छोड़ देगी, तो फिर और कौन तेरा वर होगा?

यह तो देव-पक्ष का अर्थ हुआ। अब नल-पक्ष का अर्थ सुनिए—

अन्वय—(हे) विदुषि ! एषः देवः नैषधराजगस्या पतिः न निर्णीयते किमु ? न व्रियते (किमु) ? अयं ना+ नलः खलु; यदि एनम् उञ्झति, तब अति महान् अलाभः पुनः ते वरः कतरः ?

भावार्थ—हे विदुषि ! (पंडिते!) नैषधराज के वेश में अपने पति इस राजा को क्या तू नहीं पहचानती और क्या तू इसको वरणमाल्य पहनाने की इच्छा नहीं रखती ? यदि तू इसे छोड़ देगी, तो तेरी भारी हानि होगी; फिर और कौन तेरा वर होगा?

श्रीहर्षजी की 'पंचनली' के श्लिष्ट कवित्व का यह नमूना


•देवः = राजा । +ना=पुरुषः ।