पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
नैषध-चरित-चर्चा

उक्तियाँ जिसमें हैं, ऐसे नैषध-चरित का चतुर्दश सर्ग समाप्त हो गया। और भी—

यातःपञ्चदशः कृशेतररसास्वादाविहायं महा-
काव्ये तस्य हि वैरसैनिचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् अत्यंत सरस और अत्यंत स्वादिष्ठ नैषध-चरित का पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ। और भी सुनिए—

एका न त्यजतो नवार्थघटनामेकोनविंशे महा-
काव्ये तस्य कुतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् जिसने एक भी नवीनार्थ-घटना को नहीं छोड़ा, उसके किए हुए नल-चरित का उन्नीसवाँ सर्ग समाप्ति को पहुँचा। बस, एक और—

अन्यातुएणरसप्रमेयभाणतौ विशस्तदीये महा-
काव्येऽयं व्यगलचलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः।

अर्थात् जिस रसमयो उक्तियों का आज तक और किसी ने व्यवहार नहीं किया, वे जिसमें समाविष्ट हैं, ऐसे नैषध-चरित का बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ।

कहिए, क्या इससे भी अधिक आत्मश्लाधा हो सकती है ? आत्मश्लाघा की मात्रा इन्होंने बहुत ही बढ़ा दी है। नैषध की परिसमाप्ति में आपने अपने को अमृतादि चौदह रत्न उत्पन्न करनेवाला क्षीर-सागर बताया है और शेष सब कवियों को दो ही चार दिन में सूख जानेवाली नदियों को उत्पन्न करनेवाले पहाड़ी पत्थर ! श्रीहर्ष का जब यह हाल है, तब पंडित अंबिकादत्त