पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४
नैषध-चरित-चर्चा

उदेति ते भीरपि किन्नु? बाले !
विलोकयन्स्या न घना वनालीः ।

(सर्ग ३, श्लोक १३)
 

भावार्थ—अये! कहाँ तक तू हमारे पीछे दौड़ेगी ? वृथा क्यों परिश्रम करती है ? तू तो अभी बाला है; इस घने वन को देखकर भी क्या तुझे डर नहीं लगता ?

वृथार्पयन्तीमपथे पदं त्वां
* मरुल्ललत्पल्लवपाणिकम्पैः ;
आलीव पश्य प्रतिषेधतीयं
कपोतहुंकारगिरा वनालिः।

(सर्ग ३, श्लोक १४)
 

भावार्थ—तुझे कुपथ में पैर रखते देख यह वनराजि, वायु से चंचल होनेवाले अपने पल्लवरूपी हाथों तथा कपोतों की हुंकाररूपी वाणी से, देख, तुझे सखी के सदृश रोकती है।


  • राधाविनोद में भी लकार-बाहुल्य से पूरित एक श्लोक है।

देखिए—

कमलिनी मलिनामलिनालिना
विचलता चलतासु लतां शुभाम् ।
विधुतभां विधतां विधमानुमि-
र्नयनयोरनयोर्नयसीनयोः ।५।

यह पद्य ललित तो है, परंतु यमकमय होने से क्लिष्टता-दूषित है। नैषध का पद्द इस दोष से वर्जित है और साथ ही सरस भी है।