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नैषध-चरित-चर्चा

पटकने पर, खंड-खंड हो जाने से, इसके अंग-संभूत कण जो ऊपर को उड़ते हैं, उन्हीं से आकाश तारकित हो जाता है।

लीजिए, कृष्णपक्ष में अधिक तारकाएँ दिखाई देने का कैसा अनोखा कारण श्रीहर्षजी ने ढूँढ़ निकाला है—

स्वमभिधेहि विधं सखि मद़़िरा
किमिदमीद्दगधिक्रियते त्वया;
न गणितं यदि जन्म पयोनिधौ
हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मृता ।

(सर्ग ४, श्लोक ५०)
 

भावार्थ—हे सखि, तू मेरी ओर से इस चंद्रमा से कह कि यह तू क्या कर रहा है ? यदि तुझे महासागर से जन्म ग्रहण करने की बात याद नहीं, तो क्या तू महादेवजी के शीश पर अपना रहना भी भूल गया ?

अर्थात् उत्तम कुल में उत्पन्न होनेवाले और शंकर के उत्तमांग में, गंगाजी के निकट, निवास करनेवाले को ऐसा नृशंस कर्म करना उचित नहीं।

निपततापि न मन्दरभूभृता
त्वमुदधौ शशलान्छन चूर्णितः ;
अपि मुनेर्जठरार्चिषि बीर्णता
बत गतोऽसि न पीतपयोनिधेः।

(सर्ग ४, श्लोक ५१)