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१३४] [पञ्चतन्त्र

कि हम रात को देख नहीं सकते और दिन को उल्लू न जाने कहाँ जा छिपते हैं। हमें उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं। समझ नहीं आता कि इस समय सन्धि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय द्वैधीभाव आदि उपायों में से किसका प्रयोग किया जाय?"

पहले मेघवर्ण ने 'उज्जीवी' नाम के प्रथम सचिव से प्रश्न किया। उसने उत्तर दिया—"महाराज! बलवान् शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिये। उससे तो सन्धि करना ही ठीक है। युद्ध से हानि ही हानि है। समान बल वाले शत्रु से भी पहले सन्धि करके, कछुए की तरह सिमटकर, शक्ति-संग्रह करने के बाद ही युद्ध करना उचित है।"

उसके बाद 'संजीवी' नाम द्वितीय सचिव से प्रश्न किया गया। उसने कहा—"महाराज! शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिये। शत्रु सन्धि के बाद भी नाश ही करता है। पानी अग्नि द्वारा गरम होने के बाद भी अग्नि को बुझा ही देता है। विशेषतः क्रूर, अत्यन्त लोभी और धर्म रहित शत्रु से तो कभी भी सन्धि न करे। शत्रु के प्रति शान्ति-भाव दिखलाने से उसकी शत्रुता की आग और भी भड़क जाती है। वह और भी क्रूर हो जाता है। जिस शत्रु से हम आमने-सामने की लड़ाई न लड़ सकें उसे छल-बल द्वारा हराना चाहिये, किन्तु सन्धि नहीं करनी चाहिये। सच तो यह है कि जिस राजा की भूमि शत्रुओं के खून से और उनकी विधवा स्त्रियों के आँसुओं से नहीं सींची गई, वह राजा होने योग्य ही नहीं।"