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काकोलूकीयम्] [१६१


उस खोल में वही कबूतर रहता था जिसकी पत्नी को व्याध ने जाल में फँसाया था। कबूतर उस समय पत्नी के वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था। पति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनन्द से नाच उठा। उसने मन ही मन सोचा—'मेरे धन्य भाग्य है जो ऐसा प्रेमी पति मिला है। पति का प्रेम ही पत्नी का जीवन है। पति की प्रसन्नता से ही स्त्री-जीवन सफल होता है। मेरा जीवन सफल हुआ।' यह विचार कर वह पति से बोली—

"पतिदेव! मैं तुम्हारे सामने हूँ। इस व्याध ने मुझे बाँध लिया है। यह मेरे पुराने कर्मों का फल है। हम अपने कर्मफल से ही दुःख भोगते हैं। मेरे बन्धन की चिन्ता छोड़कर तुम इस समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो। जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं।"

पत्नी की बात सुन कर कबूतर ने व्याध से कहा—"चिन्ता न करो वधिक! इस घर को भी अपना ही जानो। कहो, मैं तुम्हारी कौन सी सेवा कर सकता हूँ?"

व्याध—"मुझे सर्दी सता रही है, इसका उपाय कर दो।"

कबूतर ने लकड़ियाँ इकट्ठी करके जला दीं। और कहा—"तुम आग सेक कर सर्दी दूर कर लो।"

कबूतर को अब अतिथि-सेवा के लिये भोजन की चिन्ता हुई। किन्तु, उसके घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था। बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही व्याध की भूख मिटाने