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२१४] [पञ्चतन्त्र


उसी दिन राजा नन्द की स्त्री भी रूठ गई। नन्द ने भी कहा—"प्रिये! तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है। तेरी प्रसन्नता के लिये मैं सब कुछ करने के लिये तैयार हूँ। तू आदेश कर, मैं उसका पालन करूंगा।" नन्दपत्नी बोली—"मैं चाहती हूँ कि तेरे मुख में लगाम डालकर तुझपर सवार हो जाऊँ, और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौड़े। अपनी इस इच्छा के पूरी होने पर ही मैं प्रसन्न होऊँगी।" राजा ने भी उसकी इच्छा पूरी करदी।

दूसरे दिन सुबह राज-दरबार में जब वररुचि आया तो राजा ने पूछा—"मन्त्री! किस पुण्यकाल में तूने अपना सिर मुँडाया है?"

वररुचि ने उत्तर दिया—"राजन्! मैंने उस पुण्य काल में सिर मुँडाया है, जिस काल में पुरुष मुख में लगाम डालकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं।"

राजा यह सुनकर बड़ा लज्जित हुआ।

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बन्दर ने यह कथा सुनाकर मगर से कहा—"मगर-राज! तुम भी स्त्री के दास बनकर वररुचि के समान अन्धे बन गये हो। उसके कहने पर ही तुम मुझे मारने चले थे, लेकिन वाचाल होने से तुमने अपने मन की बात कहदी। वाचाल होने से सारस मारे जाते हैं। बगुला वाचाल नहीं है, मौन रहता है, इसीलिये बच जाता है। मौन से सभी काम सिद्ध होते हैं। वाणी का असंयम जीव-मात्र के लिये घातक है। इसी दोष के कारण शेर की खाल पहनने के बाद भी गधा अपनी जान न बचा सका, मारा गया।

मगर ने पूछा—"किस तरह?"

बन्दर ने तब वाचाल गधे की यह कहानी सुनाई—