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हैं, दांत टूट कर गिर जाते हैं, आंख-कान बूढ़े हो जाते हैं, केवल मन की तृष्णा ही है जो अन्तिम श्वास तक जवान रहती है।

उनकी तृष्णा ने ही उन्हें ठग लिया। नाई ने उन्हें घर के अन्दर लेजाकर लाठियों से मारना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ तो वहीं धराशायी हो गये, और कुछ का सिर फूट गया। उनका कोलाहल सुनकर लोग एकत्र हो गये। नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पहुँचे। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि अनेक भिक्षुओं का मृतदेह पड़ा है, और अनेक भिक्षु आहत होकर प्राण-रक्षा के लिये इधर-उधर दौड़ रहे हैं।

नाई से जब इस रक्तपात का कारण पूछा गया तो उसने मणिभद्र के घर में आहत भिक्षु के स्वर्णमय हो जाने की बात बतलाते हुए कहा कि वह भी शीघ्र स्वर्ण संचय करना चाहता था। नाई के मुख से यह बात सुनने के बाद राज्य के अधिकारियों ने मणिभद्र को बुलाया और पूछा कि—"क्या तुमने किसी भिक्षु की हत्या की है?"

मणिभद्र ने अपने स्वप्न की कहानी आरंभ से लेकर अन्त तक सुना दी। राज्य के धर्माधिकारियों ने उस नाई को मृत्यु दण्ड की आज्ञा दी। और कहा—ऐसे 'कुपरीक्षितकारी'—बिना सोचे काम करने वाले के लिये यही दण्ड उचित था। मनुष्य को उचित है कि वह अच्छी तरह देखे, जाने, सुने और उचित परीक्षा किये बिना कोई भी कार्य न करे। अन्यथा उसका वही परिणाम होता है जो इस कहानी के नाई का हुआ। और उसे बाद में वैसा ही सन्ताप होता है जैसा नेवले को मारने वाली ब्राह्मणी को हुआ था।"

मणिभद्र ने पूछा—"किस ब्राह्मणी को?"

धर्माधिकारियों ने इसके उत्तर में निम्न कथा सुनाई—