पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/२७६

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कहानी कहने के बाद स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से घर वापिस जाने की आज्ञा माँगी। चक्रधर ने कहा—"मुझे विपत्ति में छोड़ कर तुम कैसे जा सकते हो? मित्रों का क्या यही कर्त्तव्य है? इतने निष्ठुर बनोगे तो नरक में जाओगे।"

स्वर्णसिद्धि ने उत्तर दिया—"तुम्हें कष्ट से छुड़ाना मेरी शक्ति से बाहिर है। बल्कि मुझे भय है कि कहीं तुम्हारे संसर्ग से मैं भी इसी कष्ट से पीड़ित न हो जाऊँ। अब मेरा यहाँ से दूर भाग जाना ही ठीक है। नहीं तो मेरी अवस्था भी विकाल राक्षस के पँजे में फँसे वानर की सी हो जायगी।"

चक्रधर ने पूछा—किस राक्षस के, कैसे?"

स्वर्णसिद्धि ने तब राक्षस और वानर की यह कथा सुनाई—