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मित्रभेद]
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मिलता रहा। शेर ने यह धमकी दे दी थी कि जिस दिन उसे कोई पशु नहीं मिलेगा उस दिन वह फिर अपने शिकार पर निकल जायगा और मनमाने पशुओं की हत्या कर देगा। इस डर से भी सब पशु यथाक्रम एक-एक पशु को शेर के पास भेजते रहे।

इसी क्रम से एक दिन खरगोश की बारी आगई। खरगोश शेर की माँद की ओर चल पड़ा। किन्तु, मृत्यु के भय से, उसके पैर नहीं उठते थे। मौत की घड़ियों को कुछ देर और टालने के लिये वह जंगल में इधर-उधर भटकता रहा। एक स्थान पर उसे एक कुआँ दिखाई दिया। कुएँ में झाँक कर देखा तो उसे अपनी परछांई दिखाई दी। उसे देखकर उसके मन में एक विचार उठा—"क्यों न भासुरक को उसके वन में दूसरे शेर के नाम से उसकी परछांई दिखाकर इस कुएँ में गिरा दिया जाय?"

यही उपाय सोचता-सोचता वह भासुरक शेर के पास बहुत समय बीते पहुँचा। शेर उस समय तक भूखा-प्यासा होंठ चाटता बैठा था। उसके भोजन की घड़ियाँ बीत रही थीं। वह सोच ही रहा था कि कुछ देर और कोई पशु न आया तो वह अपने शिकार पर चल पड़ेगा और पशुओं के खून से सारे जंगल को सींच देगा। इसी बीच वह खरगोश उसके पास पहुँच गया और प्रणाम करके बैठ गया।

खरगोश को देखकर शेर ने क्रोध से लाल-लाल आँखें करते हुए गरजकर कहा—"नीच खरगोश! एक तो तू इतना छोटा है, और फिर इतनी देर लगाकर आया है; आज तुझे मार कर कल