रेखा - प्राज चौथा दिन है, दत्त घर पर नहीं है। सरकारी काम से दौरे पर वाहर गए हैं। अभी और दस दिन लगेंगे उनके लौटने मे । इस घर मे व्याह- कर पाने के बाद यह दूसरा अवसर है जब वे मुझे घर छोडकर वाहर गए हैं। किन्तु तव मे और अव मे कितना अन्तर पड गया है। तव वे केवल तीन दिन को ही गए थे, और आठ दिन प्रथम से जाने की चिन्ता व्यक्त करने लगे थे। उस चिन्ता मे कितनी व्याकुलता थी। उसे देखकर मेरा मन कैसा हो गया था। जैसे मैं इन तीन दिनो के वियोग मे जिन्दा ही नही रहूगी । तव तो नया ही मेरा व्याह हुआ था, शायद दो या ढाई साल ही व्याह को हुए थे। प्रद्युम्न तव शिशु ही था। जब वे गए थे-~मैं कितना रोई थी। मुझे ढाढस देने मे वे भी रोने लगे थे। पहली ही वार उस सिंह की सी प्रकृति के पुरुष को मैंने रोते देखा था। और जब वे चले गए तो जैसे मेरा सारा ससार अधेरा हो गया था। भीतर-वाहर सर्वत्र एक अभाव ही अभाव मुझे दीखने लगा था। न खाना अच्छा लगता था, न नीद पाती थी। दिन-दिन-भर मैं प्रद्युम्न से उन्ही की वातें करती थी। वेचारा शिशु कुछ समझता न था, मेरे नेनो मे आनन्द की झलक देखकर या प्रेम की पीडा देखकर वह हँसता था, और मैं उसे छाती से लगा लेती थी। कितना सुख मिलता था मुझे उस समय शिशु प्रद्युम्न के आलिंगन मे | जैसे वह उन्ही का एक छोटा-सा सस्करण हो। जैसे वे ही सिकुडकर मेरे हृदय का हार वन गए हो। मैं तव जागते ही सपने देखती थी। उनकी मेघगर्जन- सी हंसी अपने कानो से सुनती थी। उनके प्यार का अपने प्रत्येक अग पर ५
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