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पत्थर-युग के दो बुत
 

१३४ पत्थर-युग के दो बुत है, देखते ही गुस्से मे भर जाता है। शायद नौकर लोग हमारी पीठ-पीछे आलोचना भी करते है, पर प्रकट मे कहने का साहस नहीं कर सकते। मैं भी इसीसे राय को यहा न बुलाकर उनके घर जाती है। वेवी अब पहले की भाति मुझे देखकर खुश नहीं होती, मामने मे टल जाती है । वात भी बेमन से करती है । पर मुझे उसकी क्या परवाह है । मै चाहती हू, यह पाख-मिचौनी का सतरनाक खेल बन्द हो जाए और हम खुल्लम-खुल्ला व्याह कर ले। मुझमे इतना माहम उदय हो गया हे कि मै दत्त से कह दू कि में उन्हें प्यार नहीं करती, राय को करती है। वे मुझे तलाक दे दें। पर राय झिझकते है, टालते हैं। परन्तु अव इम वार दत्त के वापस घर लौटने से पहले ही सब हेस-नेम कर लूगी, सब वातें तय कर लूगी । अव इस तरह तो नही रहा जा मकता न विवाह का उद्देश्य है कि स्त्री-पुरुप दोनो पूर्णरूपेण परस्पर संतुष्ट हो, सुखी हो, दोनो के जीवन विकसित हो। वैवाहिक जीवन जहा भूतल पर स्वर्ग का राज्य है, वहा नरककुण्ड भी हो सकता है। सब लोग वैवाहिक जीवन की त्रुटियो की परवाह नहीं करते है। और उनके वैवाहिक जीवन अन्त मे असफल होते हैं । अन्त मे तुलसी की वही कहावत चरितार्थ होती है, 'तुलसी गाय वजाय के दियो काठ मे पाय ।' स्त्री-पुरुप का जो प्रात्म- समर्पण एकान्त सुख का उद्गम है, वही नितात नीरस बन जाता है। वास्तव मे विवाह एक विज्ञान है। वैज्ञानिक जीवन मे हम विचारहीन तरीके पर नही चल सकते । स्त्री-पुरुष के बीच जो एक वैज्ञानिक सीमा है उसे जाने या माने विना हम प्रेममूलक विवाह मे भी सुखी नही रह सकते। नि सन्देह विवाह मे प्रेम का वडा प्रभाव है और छोटी-मोटी असुविधाए और वास्तविकताए तो किसी तरह वर्दाश्त की जा सकती है, परन्तु मै जानती हू वास्तविकताप्रो की लपेटो मे प्रेम भस्म हो जाता है, और तब वैवाहिक जीवन मे जलन ही जलन रह जाती है। मैं आदर्श की वात नहीं कहती। समाज मे हम यह मानकर ही चल रहे है कि स्त्री-पुरुप का जीवन मिलकर ही पूर्णाग होता है। स्त्री के विना