१३६ पत्थर-युग के दो गुत जीवन मे जितनी ही अधिक दिलचस्पिया होती है जीवन का उतना ही विस्तार हो जाता है । सुस-दु स भी उतना ही बडा हो जाता है। परन्तु स्त्रिया जो घरो मे निष्क्रिय वैठी रहती है, वे उनमे भाग नहीं ले सकती। उनके लिए प्रेम और काम ही एक महत्त्वपूर्ण वस्तु रह जाती है। परन्तु यह शायद ठीक नही है। स्त्री को कन्धे से कन्वा मिलाकर पति से सह- योग करना हितकर हो सकता है, और यह सहयोग वैसा ही अभिन्न होना चाहिए जैसा काम-साहचर्य मे होता है। मैं स्वीकार करती हू कि विवाह का प्रर्य जिम्मेदारियो का प्रारम्भ है। मा-बाप के यहा निर्द्वन्द्व जीवन व्यतीत करनेवाली लडकी पर एक- वारगी ही ज़िम्मेदारियो का तूफान उमड पाता है, परन्तु यह भी तो सच है कि जीवन के सम्बन्ध मे पति-पत्नी को एक सहयोगी साथी होने के माने एक स्वस्थ और प्राकृतिक दर्शन है। दर्शन से मेरा मतलब कल्पना की क्लिप्ट उडानें नही है । दर्शन से मेरा अभिप्राय वह समीक्षादृष्टि है जिससे हम जीवन को देखते हैं । वेशक जब हम जीवन पर व्यापक दार्शनिक दृष्टि डालते हैं तब प्रेम और कामतत्त्व ही नही, सम्पूर्ण जीवन ही जिम्मेदारियो की अपेक्षा नगण्य रह जाता है, परन्तु हमेशा नही । जीवन तो बाहर-भीतर खतरो से भरा हुआ है ही। ससार मे भूचाल आते हैं, उल्कापात होते हैं, महामारी फैलती है, जनपदोद् ध्वस होता है। हिंस्र जन्तु है, हिंस्र मनुष्य हैं ये सब तो नित्य ही हमारे जीवन के चारो ओर हैं और उनके सहारक आक्रमण हमे सावधान होने की कोई चेतावनी भी नही देते । फिर भी हम हँसते-बोलते है, खाते पीते हैं, मौज-मजा करते हैं, खतरो के डर से हम सदैव प्राश कित थोडे ही बने रहते हैं | इसी भाति वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारिया वहुत भारी है—पर उन्हे बर्दाश्त करने का साहस और वल तो हम प्रेम और कामतत्त्व ही से पाते है । कामतत्त्व और प्रेम ही तो हमे- स्त्री और पुरुप को-भिन्नलैगिकता के माध्यम से एक इकाई मे वाचता है। यही तो स्त्री-पुरुप के प्राणो का गठवन्धन करता है। यदि स्त्री-पुरुष के जीवन-दर्शन के दृष्टिकोण भिन्न हो-एक उसे
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