पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/२००

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१६२ पत्यर-युग के दो वुत रो रहा है। सव रो रहे हैं। मैं चूमू न इस चरण-रज को ? मैं तो नित्य चूमूगी। हा, यही वे आकर विराजेगे। अपने प्राचल मे-नहीं, नहीं, सिर के केशो से झाडकर मैंने इस दालान के फर्श को साफ किया है। अरे लोगो, रोमो मत । मुझे मत रुलायो, प्राज मेरे प्रियतम की अवाई है और आग ही विदाई है, अाज ही है मिलन-दिन और पाज ही है चिर विदाई। अरे हृदय, धीरज घर । सयोग-वियोग तो दुनिया के धन्धे हैं, तनिक तो कठोर वन अधर्मी। दूर रहो सब, दूर रहो। मुझे छूना नहीं। मुझे चूमने दो इस भूमि को। साजन पा रहे है आज । हा बेटा | चलो अब, उन्हे ले पाए। फिर उन्हे विदा भी करना होगा। मैं अभागिनी कर भी क्या सकती हू ? उन्हे जाना होगा, मुझे रहना होगा। चलो वेटा । चलो मेरे लाल । कोई गा रहा है आज गवनवा की साम। उमरि मोरी अजहूँ है बारी । ग्राज। साज-समाज पिया ले पाए, लाए कहरवा चार। नदिया किनारे वालम मोरा रमिया, देत पूंघट पट डार। आज गवनवा की साम । उमर मोरी अजह है वारी । 0 0 0 मुद्रक रूपक प्रिंटर्म, दिल्ली-३२ 1559