२४ पत्थर-युग के दो बुत समझता हू, परन्तु त्यागने की वस्तु को ही त्यागता हू, ग्रहण करने की वस्तु का ग्रहण करता हू । धन-दौलत, रुपया-पैसा त्यागने की नही, ग्रहण करने की वस्तु है । सो मैं उसे ग्रहण करता है। वह मेरे काम आता है। उससे मैं अपनी खुशिया खरीदता हूं। मैं जानता हू, दुनिया बडी टेढी है। इसमे जलेवी-जैसे बडे दाव-पेच है। उनमे फसकर आदमी की खुशी हवा हो जाती है, वह परेशानियो मे, मुश्किलो मे फस जाता है। पर मैं यह भी जानता हू कि आदमी की सबसे बडी दौलत उसके दिल की खुशी है । वह आदमी को अकस्मात् ही भाग्य से मिल जाती है, यह मैं नही मानता । मैं तो हर वक्त उसकी ताक मे रहता हूँ, जहा और जैसे मिले मैं उसे प्राप्त कर लेता हू। पर बहुधा मुझे वह सरीदनी पडती है। खरीदने के लिए रुपया बहुत आवश्यक और कीमती चीज है, इसलिए मैं रुपये को बहुत प्यार करता है और उसकी प्राप्ति का कोई अवसर नहीं चूकता है। हा, यह जरूर देख लेता हूँ कि कोई खतरा या उलझन न सामने आ जाए। अपनी खुगिया सरीदने के लिए मैं रुपया लेता है । यदि उसमे खुशी ही खतरे मे पड जाए तो मैं उसे रुपये को छूता नही है। इस प्रकार रुपये-पैसे का लेन-देन में पूरी सावधानी और समझदारी से करता है। अभी मै जवान हू और मर्द ह । तन्दुरुस्त हूँ। तबीयत भी रखता ह और बुद्धि भी। आफिस मे बहुत बुद्धि सर्च करनी पडती है । उममे मुझे कुछ भी लुत्फ हासिल नहीं होता। पर वह नौकरी है। उससे रुपया भी मिलता है, इग्ज़त भी है। उसी से समाज मे मेरा एक स्थान भी है। म सुप्रतिष्टित हू, इसी से वहा हाड तोडकर परिश्रम भी करता है, वुद्वि भी खर्च करता हू। पर सबकी सब नहीं। बुद्धि का एक भाग अपने लिए वचाकर रखता है, उसे में अपनी खुशी सरीदने मे खर्च करता है। औरत मर्द की सबसे बडी खुशी का माध्यम है। एक तन्दुरुस्त जवान मर्द के लिए औरत एक पुप्टिकर ग्राहार हे-शारीरिक भी, मानसिक भी। मर्द यदि ग्रारत को ठीक-ठीक अपने मे हजम कर लेता है तो फिर उनका जीवन ग्रानन्द और सौन्दयं से भर जाता है, उसका जीवन हरा-भरा रहता -
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