पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१६८

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CC पदुमावति । ३ । जनम-खंड । दोहा। ॥ ७ जउँ लगि मइँ फिरि आऊँ मन चित धरहु निबारि। सुनत रहा कोइ दुरजन राजहि कहा विचारि ॥५६॥ मदन काम। सतावद् = सन्ताप देता है। चाल = चलाता है। मोहि = मोह कर। अनङ्ग = काम। अगिश्रा = श्राज्ञा। निबारि = निवार्य = निवारण कर के। दुरजन =दुर्जन। एक दिन चतुर (सयानी) पद्मावती रानी ने हौरा-मणि से कहा कि, मैं बुझा कर (समझा कर) कहती हूं, हे हीरामणि, तुम सुनो, (मुझे) मदन (काम-देव ) श्रा कर दिन दिन सताता है ॥ हमारे पिता (विवाह के विषय में कुछ ) बात ही नहीं चलाते हैं, त्रास (डर) से मेरी माता (पिता से) कुछ कह नहीं सकती॥ (मेरी सुन्दरता पर) मोह कर देश देश के वर पाते हैं, परन्तु हमारे पिता (उन को) आँख नहौं लगाते, अर्थात् उन्हें तुच्छ समझ आँख उठा कर देखते नहौं विवाह को क्या चर्चा है ॥ मेरा योवन ऐसा हुआ है, जैसे गङ्गा, अर्थात् ऐसा बढ रहा है जैसे गङ्गा, और हमारे अङ्ग अङ्ग (देह देह) में काम (अनङ्ग) लग गया है ॥ दूस पर तब समझा कर होरा-मणि ने कहा, कि ब्रह्मा का लिखा मिटाया नहीं जाता वा मिट नहीं जाता ॥ तुम प्राज्ञा दो तो मैं देश देश फिर कर देख कि, तेरे लायक नरेश (राजा) वर (कहाँ) मिलता है। जब तक मै फिर कर पाता है, तब तक मन और चित्त को निवारण कर के धरो, अर्थात् मन और चित्त को रोक रकडो । पद्मावती और होरा-मणि का यह संवाद कोई दुर्जन सुनता रहा, सो उस ने विचार कर (सव वृत्तान्त ) राजा से (गन्धर्व-सेन से) कहा ॥ मन, ग्यारहवौं इन्द्रिय है जो कि उभयात्मक है, अर्थात् ज्ञान, कर्म, दोनों में है। सङ्कल्प विकल्प करना इस का धर्म है। चित्त, श्रात्मा को चेतन शक्ति में माहाय्य करता है। श्रात्मा के सहायक मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार हैं । बहुत से दून में से अहङ्कार को छोड देते हैं। कितने लोग मन-ही को प्रधान मानते हैं । इस चौपाई में मदन, सतावई, हमार, आँखि लगावहि, लायक यह ऐसे पद पडे हैं, जिन का प्रयोग अन्यत्र प्रायः कवि ने नहीं किया है। और यहाँ सातवौं चौपाई में पद्मावती से आज्ञा माँगना लिखा है, और १८० ३ दोहे में पद्मावती का सुग्गे से पूछना यह सब प्रायः असङ्गति मा जान पडता है। और जहाँ होरा-मणि पक्षी नर को छोड - -