५६) सुधाकर-चन्द्रिका। १३ नहीं चालती हूँ, अर्थात् तेरी सेवा-रूपी शुद्ध पदार्थ में विकुडन-रूपी दुष्ट पदार्थ का कण चाल कर नहीं मिलाया चाहती हूँ, किन्तु हृदय-रूपी पिँजडे में (तुझे) डाल कर रखना चाहती हूँ। मैं मनुष्य हूँ, दूँ मेरा प्रिय पक्षी है, और (तेरे मेरे में ) धर्म को प्रौति है, तहाँ कौन (तुझे) मार सकता है, अर्थात् पाप कर्म करने के लिये, यदि किसी से दुष्ट प्रौति हो, तो वह अवश्य ईश्वर की कृपा से मारा जाता है, और धर्म प्रौति में तो यदि कोई मारने के लिये दुष्टता भी करे, तो ईश्वर श्राप सहायक हो बचा लेता है ॥ वह प्रौति-हो क्या, जो (शरीर से उठी और फिर ) शरीर में लय हो गई। प्रौति वही है जो जीव के साथ जाय, अर्थात् जीवन पर्यन्त कभौं न टूटे, दिन दिन बढती और पुष्ट होती जाय ॥ प्रीति का भार ले कर (उठा कर ), अर्थात् उठाने पर हृदय में सोच नहीं रहता, (चाहे ) उसे (प्रौति) पथ में भला हो वा बुरा ॥ प्रौति-रूपो पहाड का भार जो काँधे पर है, वह कहाँ कूटे। (क्योंकि वह तो ) जीव से लगा कर बाँधा है, अर्थात् जब जीव शरीर से छूट कर अलग हो जाय, तब प्रीति भी सकती है, क्योंकि दोनों माथ बँधे हैं । कवि कहता है, कि यद्यपि पद्मावती ने बहुत कुछ कहा परन्तु वह शुक नहीं रहता, अर्थात् नहीं रहने चाहता, क्योंकि वह (नाऊ-बारी-रूप) काल अभी आता है, यह खटका उस के जौ में समाय गया। (और मन में वह शुक सोचता है, कि) जो कर्णधार शत्रु है, वह कभौं (अवश्य ) नाव को डुबा देता है ॥ ( यहाँ कर्णधार राजा गन्धर्व-सेन, और शुक और पद्मावती प्राणी हैं जो प्रौति-रूपी नाव पर चढे हैं)॥५६॥ कोई संस्कृत-आख्यान-पद से पाखा को बना मानते हैं, तब "श्राखउँ" का अर्थ "कहती हूँ" ऐसा कहते हैं। तुझे सेवा (दूस लिये) विजुडने को नहीं कहती हूं। अर्थात् जो वनवास के लिये कहता है, उस को मैं नहीं कहतौं, ऐसा तीसरी चौपाई का अर्थ करते हैं ॥ . = इति जन्म-खण्डं नाम तृतीय-खण्डं समाप्तम् ॥३॥
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