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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१८०

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१०० पदुमावति । 8 । मानसरोदक-खड । सरवर नहिँ समाइ संसारा। चाँद नहाइ पइठि लेइ तारा॥ धनि सो नौर ससि तरई जई। अब कित दिसिटि कवल अउ कई ॥ दोहा। साखा= शाखा। नवल- चकई बिछुरि पुकारई कहा मिलउँ हो नाँह । एक चाँद निसि सरग पर दिन दोसर जल माँह ॥ ६४ ॥ कंचुकि = कञ्चुकी = चोलिया। मारौ =माडौ। बारौ= बालिका = थोडौ उमर को। बेलौ= वल्लौं = लता। करिल = करदूत = काले। कोई कुटिल पाठ शुद्ध कहते हैं, तहाँ कुटिल = टेढे। बिसहर = विषधर = सर्प। बिम = विष। काँपि = नवीन पल्लव । दारिउँ = दाडिम। दाखा = द्राक्षा। उनंत = उन्नत = ऊँची। पेम = प्रेम। नूतन = नया। बसंत = वसन्त ऋतु । करौ = कलौ। समाद् = ममाता है। ऊर्दू = उदय हुई। कई = कोई। चकई चक्रवाक की स्त्री। नाँह = नाथ । सरग = स्वर्ग ॥ सब थोडौ उमर को (बारी) सखियाँ कञ्चुको और सारौ को. तौर पर धरौं, और सरोवर में (स्नान करने के लिये) पैठौं ॥ (उस घडी ऐसौ शोभा है) जानौँ वे सब बेली-(लता)-रूप नौर (जल) को पा कर हुलास करती हैं (उल्लासित होती हैं), और काम की क्रीडा करती हैं। अर्थात् जिन क्रीडाओं से काम देव जगत् को मोह लेता है, उन्हीं क्रीडाओं को सखियाँ करती हैं ॥ मखियाँ के केश काले, वा कुटिल, विष से भरे विषधर (सर्प) हैं। वे मुख में कमल को पकडे (धरे) लहर लेते हैं यहाँ कवि का ऐसा भाव है, कि शिर में जो लगे केश हैं, वे जानौँ काले सर्प हैं, जो कि अपने मुख में मखियों के मुख कमल को पकडे हुए हैं ॥ वाँस के अङ्कुर को करिला कहते हैं। दूस लिये यहाँ बहुत लोग ऐसा अर्थ करते हैं, कि केश का जो करिला है, अर्थात् लट, सो विष से भरे विषधर हैं ॥ विष से भरे के कहने का यह तात्पर्य है, कि साधारण सर्प जब काटता है, तब प्राणी को विष चढता है। ये ऐसे विष से भरे विषधर (मर्प) हैं, कि जो इन्हें देखता है, उस के ऊपर देखने-हौ से विष चढ बैठता है ॥ फिर कवि की उत्प्रेक्षा है कि मखियों को शोभा ऐसौ है, जैसे दाडिम और दाख में काँप उठी हाँ, अर्थात् नव पल्लव निकल आये हाँ, (मखियाँ दाडिम, दाख . उन के भूषण नव पल्लव हैं)। अथवा मखियाँ नहीं है, जानों प्रेम को - - ,