पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१८४

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१०४ पदुमावति । ४ । मानसरोदक-खंड । । - वह अचेत हो गई कि मेरा (अब) मणि-हार गया ॥ कमल के डार को पकड कर (गहि) विकल हो गई, (और अपने मन में कहने लगी, कि) अपने हार के लिये किस से पुकार करूँ॥ (अपने मन में पहाताने लगी, कि हा) क्याँ इस साथ में खेलने आई, (कि) हार गवाँ कर (खाली) हाथ से (अब) चलो ॥ घर पैठते-हौ (गुरु-जन ) इस हार को पूँ.गे, (कि हार क्या हुआ उस घडी) कौन उत्तर से (घर के भीतर) पैठने पाऊँगौ ॥ (दूसौ दुःख से उस के ) सौप-रूपी नयन में आँसू तिस तरह से भर गये (भरे), जानौं उस सौप में माँती भर गई हाँ। (फिर वे माँती से आँसू) ढर ढर कर गिरती हैं, अर्थात् गिरने लगौ ॥ सखियाँ ने कहा कि हे बौर-हौ कोकिला ( कोकिला-सौ बोलने-वाली), कौन ऐसा पानी है, जिस में पवन (हवा) न मिला हो, अर्थात् पानी में भी अवश्य पवन मिला रहता है, सो डूबने पर भी पवन के आधार से बहुत देर तक प्राण रहता है। सो हार गवाँ कर प्राणौ ऐसा-हौ रोता है ? अर्थात् नहीं रोता है। यदि (हार) खो गया हो, तो (रोने से क्या फल ) । हेरि हेराय लो (डूबने से हम लोग न मरजायँगौ ) ॥ (इतना कह कर) एक-हौ साथ डूब डूब कर सब मिल कर हेरने लगौँ। कोई हाथ में माँती ले कर उठौं (उतराई ), और कोई घाँघौ ॥ ६६ ॥ चउपाई। कहा मानसर चहा सो पाई। पारस-रूप इहाँ लगि आई भा निरमर तिन्ह पान्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे ॥ मलय-समौर बास तन आई। भा सौतल गइ. तपनि बुझाई ॥ न जनउँ कउनु पवन लेइ आवा। पून दसा भइ पाप गवाँवा ॥ ततखन हार बेगि उतराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥ बिगसौ कुमुद देखि ससि-रेखा। भइ तहँ आप जहाँ जो देखा ॥ पावा रूप रूप जस चहा। ससि-मुख, सब दरपन होइ रहा ॥ दोहा। नयन जो देखो कवल भइ निरमर नौर सरौर । हसति जो देखो हंस भइ दसन जोति नग हौर ॥ ६७ ॥ इति मानसरोदक-खंड ॥४॥. =