पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१८९

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६] सुधाकर-चन्द्रिका। १०८ चउपाई। पदुमावति पहँ आइ भंडारौ। कहेसि मंदिर मँह परी मॅजारी ॥ सुत्रा जो उतर देत हा पूंछा। उडि गा पिँजर न बोलइ छूछा ॥ रानी सुना सखि जिउ गाऊ । जनु निसि परौ असत दिन भण्ज ॥ गहनहिँ गही चाँद का करा। आँसु गगन जनु नखतन्ह भरा ॥ टूट पालि सरवर बहि लागे। कवल बूड मधुकर उडि भागे ॥ प्रहि बिधि आँसु नखत होइ चुए । गगन छाँडि सरवर भरि उए ॥ छिहुरि चुई मोतिन्ह कइ माला । बाँधा चहुँ पाला ॥ अब संकेत दोहा। = पकड छटक छटक शुकना = नर एक वास उडि यह सुअटा कह बसा खोजहु सखि सो बासु । दहुँ हइ धरती की सरग पवन न पावइ तासु ॥ ६ ॥ भंडारी भण्डारी=भण्डार में रहने-वाली। मंदिर = मन्दिर। अहा = था। ठूछा = खालौ। सूखि = सूख =शुष्क । असत = अस्त । गहनहिँ = ग्रहण में । गही गई। करा

कला = तेज । आँसु = अश्रु । पालि = प्रान्त = तट = किनारा । छिरि

कर=छहर छहर कर। संकेत = सङ्केत = सङ्कोच । चह =चारो। पाला = किनारा। सुपटा= सुना सुगना सुग्गा । बासु- = बसने का स्थान। दऊँ = क्या जाने। धरतौ = धरित्रौ = भूमि। को = वा, अथवा। सरग = वर्ग॥ पद्मावती के यहाँ भण्डारी ने श्रा कर कही, कि (श्राप के) मन्दिर में बिलैया (मार्जारौ) (श्रा) पडौ। (दूस लिये) पूछने से जो शक उत्तर (जवाब ) देता था, सो उड गया खालौ ( कूछा) पिंजडा (पिंजर = पञ्जर ) नहीं बोलता, अर्थात् पिँजडा खाली है, उस में से आवाज नहीं आती है ॥ रानी ने (इस बात को) सुना ( सुनते-हौ) जीव सूख गया, (ऐसौ कान्ति मलिन हो गई ), जानौँ दिन अस्त हो गया, और रात्रि (निशि) (श्रा) पडी । (रानी का मुख-चन्द्र ऐसा मलिन हो गया, जानौँ) ग्रहण में चन्द्रमा को कला (राड से) पकड गई हो, (अँधेरा हो जाने से रात्रि में नक्षत्रों को चमक और संख्या बढ जाती है, दूस लिये) अन्तरिक्ष में