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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२२५

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६१-६२] सुधाकर-चन्द्रिका। १४५ नागमती जैसा चाँद तैमी जो उज्वलित थी, (उस उज्ज्वल चन्द्र में ) (जब ) पति का रोस हुआ, (तब) ग्रहण के ऐसौ पकड गई, अर्थात् पति के रुष्ट होने से, जो मुख-चन्द्र उज्वलित था, वह ऐसा मलिन हो गया, जैमा ग्रहण में चन्द्र राह के पकड़ने से मलिन हो जाता है ॥ (नागमती) परम सौभाग्य को न निवाह सकौ, अर्थात् पति को प्रसन्न न कर सको। जब सेवा से चक गई (हारी) तब दौर्भाग्य (उत्पन्न ) हा ॥ (अपने मन में कहने लगी कि), इतना-ही दोष के करने से पति रूठ गया, (मो) जो पति को अपना कहता है, सो झूठा है ॥ (कवि कहता है, कि जैसे गर्व में नागमती भूलौ) ऐसे-हो गर्व में कोई न भूले । जिस को (पति का) डर है, वही (सो-ई) ( पति को) बहुत प्यारी होती है ॥ (ऐसा सोच कर ) रानी धाई के पास, सेमर के भूत्रा (मदृश) शुक को श्राशा से आई ॥ (और कहने लगी, कि) प्रौति-रूपी कञ्चन ( सुवर्ण) में (पति-रोस-रूपौ) मौसा पड गया। (सो सुवर्ण) फट कर (विथरि ) नहीं मिलता है, (मोसे को) श्यामता, अर्थात् कालो दाग, अवश्य ( पद = अपि= निश्चय ) देखी जाती है, अर्थात् देख पडती है ॥ (मो, हे सखि, ) मोनार कहाँ है, जिस के पास (मैं ) जाऊँ, (और वह ) सौभाग्य वा सोहागा दे कर ( फटे प्रौति-रूपी सोने को ) एक स्थान में करे॥ मैं पति को प्रीति के भरोसे जी में गर्व किया। (तिसौ से जो शुक पर रिस किया), तिसौ रिस से बे-अादर को हुई हूँ, (क्योंकि ), हे नागरि ( चतुरो) धाई, पति (नाह) रूस गया है ॥ १ ॥ चउपाई। उतर धाइ तब दोन्ह रिसाई। रिस आपु-हि बुधि अउरहि खाई ॥ म. जो कहा रिस करहु न बाला। को न गाउ प्रहि रिस कर घाला ॥ तूं रिस भरी न देखेंसि आगू। रिस मह का कहँ भएउ सोहागू ॥ बिरस बिरोध रिस-हि पइ होई। रिस मारइ तेहि मार न कोई ॥ जेहि रिस तेहि रस जोगि न जाई। बिनु रस हरदि होइ पिअराई ॥ जेहि कह रिस मरिअइ रस जीजइ। सो रस तजि रिस कोह न कीजइ॥ कंत सोहाग न पाइअ साधा। पावइ सोइ जो ओहि चित बाँधा। 19