१०६ - १०७] सुधाकर चन्द्रिका। १७८ . और पक्षियों के शरीर में जितने पक्ष है, वे सब निश्चय समझो, कि बरौनी बाण-हो हैं। इस प्रकार कवि ने 'बेधि रहा मगर-उ संसारा' इस वाक्य का समर्थन किया । वरुणस्य-यं, वारुणौ (अर्यात् जल-देवता) का अपभ्रंश यदि बरुनी को मानो, तो उस जल-देवता-हौ के प्रसाद से श्राकाश के नक्षत्र, जिन्हें भारत के ज्योतिषी जल-मय कहते हैं, वृक्ष को डारें, पशु और मनुष्य के रोएँ और पक्षि के पक्ष सब जीवन-स्वरूप जल- देवता-ही के अनुग्रह से सु-रचित है, और सब में उसो जल-देवता का अंश वर्तमान है, दूस प्रकार यह अर्थान्तर भी यहाँ कर सकते हो ॥ १०६ ॥ ७ चउपाई। नासिक खरग देउँ केहि जोगू। खरग खोन वह बदन सँजोगू ॥ नासिक देखि लजानेउ सूत्रा। सक आइ बेसर हाइ जा॥ सुआ जो पिअर हिरा-मनि लाजा। अउरु भाउ का बरनउँ राजा॥ सुश्रा सो नाक कठोर पवारौ। वह कोवल तिल पुहुप सँवारी ॥ पुहुप सु-गंध करहिं सब आसा। मकु हिरिकाइ लेइ हम बासा ॥ अधर दसन पइ नासिक सोभा। दारिउँ देखि सुत्रा मन लोभा ॥ खंजन दुहुँ दिसि केलि कराहौँ। दहुँ वह रस को पाउ को नाहौँ । दोहा। देखि अमौं-रस अधरन्द भाउ नासिका कोर । बास पहुँचावई असरम छाँड न तौर ॥ १०७ ॥ पवन नासिक = नासिका नाक। खरग खड्ग = तलवार । जोग = योग्य । खौन = चौण = पतलौ। बदन =वदन मुख । संजोग = संयोग। सूत्रा = शुक= सुग्गा। सूक शुक्र ग्रह जो असुरों का गुरु है ( २१वें दोहे को टौका देखो)। बेसर = विसर = विशिष्ट सर (मोतियों को लड) मोतियों से बना नाक का एक श्राभूषण। ऊश्रा उदय हुत्रा। पिअर = पौत पौला। लाजा = लज्जा से। पँवारी= प्रवरी= प्रवर-गोत्र कह कह कर स्तुति करने वाला पौरिया। कोवल = कोमल = मृदु। पुहुप = पुष्य। सँवारी सम्मार्जित हुई बनाई गई । आमा = आशा = उम्मेद। हिरिका = नगौच कर =लगा
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