२२४ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड। [११८-२१६ (पद्मावती के) लङ्क को समता में सिंह नहीं जीतता है। (दूसौ से लज्जित हो) हार कर (सिंह ने ) वन-वास लिया, अर्थात् वन में जा कर बसा और तिसौ रिस से, (कि मैं लङ्क को बराबरौ में हार गया हूँ), ( पद्मावती के जाति) मनुष्य(-मात्र) का रक्त पौता है, और (मनुष्यों को) मार कर (उन को) मांस को खाता है। यह कवि कौ उत्प्रेक्षा है। व” का बसा नाम इस प्रान्त में प्रसिद्ध नहीं है। 'बमा' यह किसी बरै-वाची संस्कृत शब्द का अपभ्रंश भी नहीं है। यदि विष जिस में रहे उसे विषौ कहैं, तो दूस का अपभ्रंश संभव है, कि विमौ वा विमा अथवा वसा हो सकता है ॥ ११८ ॥ चउपाई। नाभौ कुँडर सो मलय-समौरू । समुद भवर जस भवइ गँभौरू ॥ बहुतइ भवर बवंडर भए। पहुँचि न सके सरग कह गए ॥ चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू। दहुँ को पाउ को राजा भोजू ॥ को ओहि लागि हवंचल सोझा। का कहँ लिखी अइस को रोझा ॥ तौवइ कवल-सु-गंध सरोरू। समुद लहरि सोहइ तन-चौरू ॥ झूलहिँ रतन पाट के झाँपा। साजि मयन दहुँ का पहँ कोपा ॥ अबहिँ सो अहइ कवल कइ करो। न जनउँ कवनु भवर कहँ धरौ ॥ दोहा। भ्रमति = घूमता बेधि रहा जग बासना परमल मेद सु-गंध । तेहि अरघानि भवर सब लुबुधे तजहिँ न बंध ॥ ११६ ॥ कुंडर = कुण्ड । समोरू = समौर = वायु। भवर = भ्रमर = श्रावर्त्त= भौंर । भवद् = है = फिरता है। गंभीरू = गम्भौर = गहिरा । बवंडर = वात्या = -बबूला = वायु-चक्र = हवा का चक्कर। सरग = स्वर्ग = श्राममान। माँझ = मध्य = बीच। कुरंगिनि कुरङ्गौ = हरिणौ । खोजू = खोज = चिन्ह । ( ‘खोज मारि रथु हाँकहु ताता। श्रान उपाय बनिहि नहिँ बाता ॥' तुलमौदाम-रामायण अयोध्या-काण्ड ८५ वाँ दोहा )। भोजू = भोज, धारा का प्रसिद्ध राजा । श्रीहि लागि = उम के लिये। हवंचल = हिमा- -हिमालय पहाड । सौझा = सिद्ध हुआ, वा पक गया (तपस्या से )। रोझा = रक्त
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