१२४ - १२५] सुधाकर-चन्द्रिका । २९ शक्ति-पूर्ण हस्त भी नहीं पहुँच सकता, वहाँ शरीर का शक्ति-रहित अनुठ हाथ तो कथमपि नहीं पहुँच सकता, वैसे-ही प्रेम-कौ चोटी तक पहुंचना मनुष्य-शक्ति से बाहर है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सदृश, यदि तपो-बल से मनुष्य हो जाय, तो सुमेरु-शिखा-समान प्रेम-चोटी तक पहुँच सकता है। गगन दृष्ट है, अर्थात् देख पडता है, (दूस लिये) वह (मो) पहुँचा जाता है, अर्थात् श्राकाश तक लोग पहुँच सकते हैं । (परन्तु ) प्रेम (तो) अदृष्ट है (दूम लिये पर-ब्रह्म के ऐमा यह) श्राकाश से भौ ऊँचा है ॥ प्रेम-रूपी ध्रुव, ध्रुव से भी ऊँचा है (क्योंकि वह तो श्राकाश-ही में रहता है और अदृष्ट-प्रेम तो आकाश से भी ऊँचा है)। (इस लिये जो पहले अपने ) शिर को दे कर, (उस शिर के ऊपर) पार्वं दे कर, (यदि इस प्रेम-परब्रह्म के छूने को इच्छा करे तो) वह (सो) लवे, अर्थात् ऐसा हठ-योग का माधन करे जिस में अपना शिर तक काट कर हवन कर डाले, तब यदि सिद्ध हो जाय तो उस प्रेम के स्पर्श-योग्य हो सकता है, अन्यथा प्रेम तक पहुंचना बड़ा कठिन है। दूमो पर किमी कवि ने यह दोहा लिखा है, कि- 'मोस काटि आगे धरो ता पर राखो पाँव । प्रेम बाग के बीच में ऐसा हो तो श्राव ॥' सब लोग कहते हैं, कि राजन्,) तुम राजा और सुखिया हो, (मो तुम ) राज्य का सुख भोग करो। रे (राजन्), दूस (प्रेम) पन्थ में (चल कर, प्रेम तक) वह (सो) पहुंचता है, जो कि दुःख और (राज्य, सुख, सम्पत्ति इत्यादि का) वियोग महता है ॥ १२४ ॥ चउपाई। सुअइ कहा सुनु मो सउँ राजा। करब पिरौति कठिन हइ काजा ॥ तुम्ह अब-हौं जेइअ घर पाई। कवल न बइठ बइठ तहँ कोई ॥ जानहिं भवर जो तेहि पँथ लूटे। जीउ दोन्ह अउ दिए-उ न छूटे ॥ कठिन आहि सिंघल कर राजू । पाइअ नाहिँ राज के साजू ॥ ओहि पँथ जाइ जो होइ उदासी। जोगी जती तपा सनिवासी॥ जोग जोरि वह पाइत भागू। तजि सो भोग कोइ करत न जोगू ॥ तुम्ह राजा चाहहु सुख पावा। जोगी भागिहि कित बनि आवा ॥
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