२२६ पदुमावति । ११ । पेम-खंड । [२७१ जाउँ गारी। मेला = मेलयति = मिलाता है। सुलगा = सु-लग्गदू से णिजन्त, जैसे जगद् से जगाय, भगद् से भगाय, पढदू से पढाय इत्यादि। सु-लग्गद् = सु-लगति (शकादौनां द्वित्वम् ५२ । प्राकृत-प्रकाश, अष्टमपरिच्छेद, शक्नोति = मक्कद। लगति = लग्गद् ) सुन्दर- रौति से लगाना। चेला = शिव्य । पनिग पतङ्ग = फनगे। भिरिंग = भृङ्ग = कौट विशेष। करा = कला=विद्या। कारन कारण। जरा =जर गया हूँ जरा हूँ॥ फूल = फुल्ल = पुष्य। फिरि = फिर फिर कर = घूम घूम कर । पूँछउँ = पृच्छानि = पूँ। केत निकेत = स्थान = घर, वा केत = केतक = केतकी का फूल । नेउछाउरि= नेवछावर कर । ज्याँ = यथा = जैसे । मधुकर = भ्रमर = भौंरा । देत = देता है ॥ (हौरा-मणि शुक से १२५-१२६ दोहे को) बातों को सुन कर, राजा (रत्न- सेन) का मन जाग उठा, (और जैसे कोई किसी वस्तु के ध्यान में काठ के ऐसा हो जाता है, उसी प्रकार राजा को) टकटकी लग गई; पलक नहीं मारता है, अर्थात् विना पलक भाँजे टकटकी लगा कर, एक ओर अचल दृष्टि लगा कर, ताकने लगा ॥ (और) नयनों से मोती और मूंगा ढरते हैं (ढरने लगे), अर्थात् कभौं जल-विन्दु मुक्ता-सदृश और कभी रक्त-विन्दु मूंगा-सदृश राजा की आँखों से टपकने लगे ; ( और राजा ) गूंगा हो कर, रह गया ; जैसे (कोई ) (जादू का) गुड खा कर, गूंगा हो कर, रह जाता है, खट्टा वा मौठा कुछ भी नहीं कह सकता ॥ (शुक के ज्ञानोपदेश से राजा को) हृदय की वह ज्योतिः-स्वरूप (परमात्म-रूप) दीया सूझौ, (दूस लिये) यह जगत् के जो (जम्बू, शाक, शाल्मल, कुश, क्रौञ्च, गोमेदक, और पुष्कर) दीप हैं वे अन्धकार-मय हैं, यह समझ पडा ॥ (रात दिन जो धन, दारा इत्यादि माया-ही की ओर दृष्टि रहती थी, वह) दृष्टि उलट कर, माया से रूठ गई, अर्थात् माया से विरक्त हो गई; (मो माया को) झूठी जान कर, (अब माया को भोर) पलट कर, नहीं फिरती है॥ (कवि कहता है, वा राजा अपने मन में विचार करता है, कि) जब (यह जगत् कौ) स्थिति (दशा) निश्चय से स्थिर नहीं है, (तब दूस) उजार जग में बम कर, क्या कीजिये, अर्थात् जब निश्चय है, कि यह संसार क्षण-भङ्गुर है, तब दूस के बीच वाम करने से क्या फल ॥ (राजा कहता है, कि) गुरु (तो) निश्चय कर, विरह (परमात्मा के मिलने के लिये प्रेम) को (एक) चिनगारी (केवल) मिजा देता है, अर्थात् शिष्य के हृदय में डाल देता है ; ( परन्तु अमल) वही (मो) चेला है, जो कि (उस चिनगारी से भाग को) सुलगा लेता है, अर्थात् पक्का चेला वही जो ७
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