पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३७८

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२७२ पदुमावति । १२ । जोगी-लंड । [१३८ पौके लगने-वाला ।। भोर = भूरि प्रातःकाल = दिन = सवेरा। कोस = क्रोश । दस = दश । = जादू (याति) का बहु-वचन । पन्थी = पथिक। पंथा = पन्थाः = मार्ग। जे=ये। चलहिँ = चलद (चलति) का बहु-वचन । का= किम् = क्या। रहहि = रहद् (रहति) का बहु-वचन। श्रोनाहि = श्रोनाइ (अवनमति) का बहु-वचन = झुक जाते हैं । यात्रा हुई और (पुनः) राजा चला। (चलने के समय) योगियों का टङ्गी-नाद बजा, अर्थात् यात्रा में मङ्गल के लिये चलती बेला योगियों ( सोरह हजार कुरों ) ने अपनी अपनी सिंगी को बडे उच्च-खर से बजाया ॥ (मार्ग में सब योगी आपस में ) कहते हैं, कि आज (तो) कुछ थोडी-ही यात्रा है, अर्थात् 'खल्पारम्भः क्षेमाय भवति' (किसी कार्य के करने में प्रारम्भ में उस का थोडा करना भला होता है), दूस सिद्धान्त से श्राज तो थोडा-ही चलना है, (परन्तु ) कल से पयान में दूर जाना है, अर्थात् कल से मंजिल कडी होगी ॥ (मो ) यदि कोई उस (ोहि) (मंजिल में ) मेल से पहुँचे, अर्थात् पौछा न दे बराबर साथ देता रहे, तब हम (लोग ) कहेंगे, कि वह भला, अर्थात् उत्तम मनुष्य है ॥ (क्योंकि ) श्रागे पर्वतों को शिला हैं, अथवा पर्वतों को परम्परा हैं, (और वे ) पहाड (बडे-हौ) विकट (विषम) हैं, (उन को) घाटी अत्यन्त अगम्य हैं ॥ बीच बीच में (उन पहाडों के ) नदी, कन्दरा और नारे हैं । स्थान स्थान पर राह के मालिक, अर्यात् ठग वा डाँकू लोग, जो पर्वतों में अपनी अपनी सौमा बाँध कर, उन सीमाओं तक के राजा बन बैठे हैं, वे लोग (अपनी सीमा के भीतर पथिकों के आने पर ‘कर-झुलौनी' कर के लिये, वा विशेष धनौ समझ लूटने के लिये) उठते हैं ॥ (योगी लोग कहते हैं, कि फिर आगे दक्षिण लङ्का के निकट हम लोग) हनुमान् को हाँक सुनेंगे, (उस हाँक को सुन कर) देखें कौन (साहस कर, विना घबडाये) पार होता है, (और) कौन (घबडा कर) थक जाता है, अर्थात् थक कर, वहीं रह जाता है। कहावत है, कि जब राम-चन्द्र लङ्का को जीत कर, इस पार सेतु-वन्ध के पास आये, तब वहाँ के साधु-जन बडे विनय से कहे, कि कुछ काल बीते राक्षसों के सन्तान जब बहुत बढ जायंगे, तब फिर वे लोग दूस पार श्रा कर, हम लोगों को नाना प्रकार की पीडा देंगे । सो हे भगवन्, भक्तवत्सल, अनुग्रह कर, हम लोगों के कल्याण के लिये कुछ उपाय कर जाये। इस पर राम-चन्द्र ने हनुमान् को त्राज्ञा दिया, कि तुम अपने अंश का एक दिव्य पुरुष नियत कर, उसे यहाँ चौकीदार कर दो, जिस में राक्षस लोग भय से इस पार न आवै। इस प्राज्ञा से .