१४६] सुधाकर-चन्द्रिका। जस बाउर न बुझाए बूझा। जउनहि भाँति जाइ का सूझा ॥ मगर मच्छ डर हिअइ न लेखा। आपुहि चहइ पारभा देखा ॥ अउ न खाहिँ ओहि सिंघ से दूरा। काठ-हु चाहि अधिक सो झूरा ॥ माया संग न आथी। जेहि जिउ सउँपा सोई साथी॥ काया दोहा। जो किछु दरब अहा सँग दान दीन्ह संसार। का जानी केहि सत सती दइउ उतारइ पार ॥१४६॥ बिश्रोग = वियोग = विरह = जुदाई । जोग = योग। दुख = दुःख । दाह = दाह = ताप= जलन । जरम= जनम=जन्म । जरतः जरता है जर = ज्वलति । श्रोर अन्त = अ-लव। निबाह = निर्वाह । डर =भय। लज्जा =लाज = शर्म दावपि= दोनों । गवाँनी = गमन कर जाती हैं = चली जाती हैं = खो जाती हैं। किळू = किञ्चित् = किछु = कुछ। श्रागि = अग्नि = श्राग। पानौ = पानीय। भागद् = अग्रे= श्रागे। धावा = धाव = धावद (धावति)। मउंह = सन्मुख = सामने । धसावा = धमा-श्रावा = धमा श्राता है, धमा = धस (ध्वंसते ) का भूत-काल । श्रावा = श्राव = श्रावद् (श्रायाति) पाता है। बाउर = वातुल = बौरहा । बुझाए = बुझाने से = सम- झाने से। बूझा = बूझद् = (बुझ्यते )। जउनहि = य एव नु हि = जौन। भाँति = भनी = रौति, जिस से संशय भग्न हो। सूझा = सूह्य = सुन्दर जहा, यहाँ सूझा देखा = सूझ (शुध्यति) का भूत-काल। मगर = मकर = एक भयङ्कर जल-जन्तु । मच्छ = मत्स्य, रोह, पहिना इत्यादि। हिदू = हृदये = हृदय में । लेखा लेख: लिखद् (लिखति) -लिखता है = अर्थात् ख्याल करता है। पारभा = प्रभा= अपने प्यारे को कान्ति, जिस का कि प्रेम उत्पन्न हुआ है। खाहिँ = खाइ (खादति) का बहु-वचन । सिंघ = सिंह = प्रसिद्ध गज-वैरौ जन्तु । सैंदूरा = शार्दूल = एक प्रकार का व्याघ्र ( शार्दूलदीपिनौ व्याघ्रौ, अमरकोश)। काठ-हु = काष्ठतोऽपि काठ से भी। चाहि = च हि = निश्चय से । झूरा= झोर्ण = सूखा । काया = काय = शरीर । माया = पुत्र दारादि का स्नेह। प्राथो अस्ति = सार वस्तु । जिउ = जीव । मउँपा = समर्पण किया। मोई = = स एव = वही। माथी =मार्थी = मङ्गौ ॥ दरब= द्रव्य = धन । अहा = अामौत् = था। सँग = मङ्ग । मत = सत् = सत्पुरुष = सज्जन । सती पतिव्रता = सुशीला - 38
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